रामलीला :: ऐतिहासिक और प्राचीन परम्पराओं का मंचन
(Ramleela in Uttarakhand)
देवभूमि के नाम से जाना जाता है उत्तराखंड, यहाँ महादेव की भूमि है और माॅं भगवती के रूप में शक्ति की पूजा की जाती है माता गंगा और यमुना का उद्गम स्थल, भगवान नारायण का पावन धाम बद्रीनाथ ८४ करोड़ देवी देवताओं निवास स्थान भी यहीं है, इसी भूमि मैं मर्यादा पुरूषोत्तम भगवान राम की लीला का प्रभाव समाज में देखने को मिलता है मर्यादा पुरुषोत्तम राम की कहानी को लीला के रूप में मंचन को रामलीला कहा जाता है राम के सम्पूर्ण जीवन एवं क्रियाकलाप से स्पष्ट होता है कि राम सम्पूर्ण व्यक्तित्व समाज को मान्य उच्चकोटि के वैयक्तिक मूल्यों से परिपूर्ण है। राम अपने पुरूषार्थ, संघठन-कौशल, पराक्रम, आदर्श-निष्ठा, शील, अपराजेय आस्था, समता, विवेक, लोकहित, प्रजा-पालकता, राष्ट्रभक्ति और उत्सर्गपूर्ण जीवन के कारण वन्दनीय है।
उत्तराखंड के समाज पर रामलीला का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखता है, जो बुराई पर भलाई की जीत के साथ उत्सव के रूप में प्रदर्शित की जाती है और यह उत्सव गढ़वाल में सामाजिक सहभागिता से आयोजित किया जाता है। देश में अधिकांशतः रामलीलायें दशहरे के अवसर पर ही मंचित की जाती है, और यही परम्परा गढ़वाल के नगरीय क्षेत्रों पौड़ी, उत्तरकाशी, गोपेश्वर, रूद्रप्रयाग, टिहरी, देवप्रयाग, हरिद्वार ऋषिकेश व देहरादून में भी है। परन्तु गढ़वाल के ग्रामीण क्षेत्रों में लिये लोग ऐसे समय को निर्धारित करते हैं जब वे अधिक से अधिक लोगों की सहभागिता रामलीला मंचन व दर्शन के लिये कर सके। इसी कारण गढ़वाल के गाॅंवों में रामलीला मंचन दीपावली के बाद, अधिक ऊॅंचाई वाले क्षेत्रों में अत्यधिक ठंड के कारण जून के महीने में और भगवान बद्री विशाल के पुरोहितों के गाॅंव डिम्मर में भगवान बद्री विशाल के कपाट खुलने से पूर्व होली के त्यौहार के अवसर पर आयोजित की जाती है।
उत्तराखंड की ऐतिहासिक रामलीला का एक अपना इतिहास है। (History of Ramleela in Uttarakhand).
वैसे तो सम्पूर्ण भारत मैं रामलीला विभिन्न शैलियों में मंचित किया जाता है । परन्तु उत्तराखण्ड की संस्कृति का एक रंग रामलीला है जो गेयात्मक शैली मे मंचित की जाती है। उत्तराखण्ड में रामलीला का जन्म कुमाऊॅ मण्डल के अल्मोड़ा नगर को मन जाता है,। १८६० के आसपास दांया के श्री बद्री दत्त जोशी, सदर अमिन ने अल्मोड़ा के बद्रेश्वर मैदान मैं पहली बार रामलीला का आयोजन किया था और इसको नाटकीय मंचन के रूप मैं पं उदयशंकर जी द्वारा किया गया। उत्तराखण्ड की रामलीला को मंचीय रूप में प्रस्तुत करने का श्रेय पं. उदयशंकर जी को जाता है। इन्ही से प्रेरणा लेकर जनश्रुति के अनुसार १८८३-८४ मैं डॉ भोलादत्त कला और तारादत्त गैरोला जी के प्रयासों से गढ़वाल मंडल मैं पौड़ी के कांडई गाँव मैं प्रथम रामलीला का मंचन किया गया। अल्मोड़ा से शुरू हुई रामलीलाओं का मंचन धीरे धीरे पुरे उत्तराखंड तक फ़ैल गयी, वैसे तो पुरे गढ़वाल मैं ग्रामसभा स्तरों मैं रामलीला का मंचन किया जाता रहा है, परन्तु धीरे धीरे पलायन की मार के चलते इसके मंचन थोड़े काम जरूर हुए है परन्तु भगवान राम के प्रति भक्तों की श्रद्धा काम नहीं हुआ है। उत्तराखंड के गढ़वाल मंडल मैं मुख्यतः पौड़ी, टिहरी, देवप्रयाग, सुमाड़ी, देहरादून तथा चमोली जिले के सलूड़-डुंग्रा गाँव की रामलीलाएं प्राचीन है। तो आइये जानते है इन कुछ अद्भुत रामलीलाओं के मंचन के बारे मैं क्यों है ये खास -
पौड़ी की रामलीला (Popular Ramleela in Pauri Garhwal)
जब भी रामलीला की बात की जाती है तो पौड़ी की रामलीला का नाम सबसे पहले लिए जाता है जो की प्राचीनतम रामलीलाओं मैं से एक है, पौड़ी की रामलीला का इतिहास लगभग १२० साल पुराना है, पौड़ी मैं स्थानीय लोगो के प्रयास से १८९७ मैं पहली बार रामलीला का मंचन कांडई गाँव मैं किया गया था ग्रामीणों के इस प्रयास को एक बृहद स्वरूप का प्रयास भोलादत्त काला (अल्मोड़ा निवासी), पी सी त्रिपाठी (जिला विद्यालय निरीक्षक), कोतवाल सिंह नेगी (संपादक - क्षत्रिय वीर व् एडवोकेट), तारादत्त गैरोला (साहित्यकार व् संपादक) आदि के द्वारा किया गया, इनसबके इस रामलीला से जुड़ने के कारण पौड़ी की रामलीला को एक नया स्वरूप मिला जो की लगातार जारी रहा, वर्ष १९४३ तक रामलीला का मंचन सात दिवसीय होता था, बाद मैं इसे शारदीय नवरात्रों मैं आयोजित कर दशहरे के दिन रावण वध की परम्परा शुरू हो गई। जो आजतक चली आ रही है, वक्त के साथ चलते चलते पौड़ी की रामलीला भी अपने आपको वक्त के साथ समन्वय बनाते आ रही है, कुछ समय पहले महिला पात्रों का अभिनय भी पुरुष कलाकारों द्वारा किया जाता था परन्तु वर्ष २००४ के बाद से रामलीला मंचन मैं महिला पात्रों की भूमिकाएं महिला कलाकार करने लगी है, साथ के साथ मंचन पूरी तरह से पारसी थियेटर और शास्त्रीय संगीत पर आधारित हो गयी, पौड़ी की ऐतिहासिक रामलीला को अंतराष्ट्रीय पहचान भी मिली है, यूनेस्को द्वारा भगवान राम से जुडी तमाम विधाओं के संरक्षण को योजना बनाई गई जिसके अंतर्गत इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र, दिल्ली द्वारा देश भर मैं रामलीलाओं पर शोध किया गया जिसमे पाया गया की पौड़ी की रामलीला एक इतिहासिक धरोहर है। रामचरित मानस पर आधारित रामलीला अब आधुनिकता की और अग्रसर है।
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अल्मोड़ा की रामलीला (Popular Ramleela in Almora) -
अल्मोड़ा की रामलीला को उत्तराखंड मैं रामलीला के उद्भव का केंद्र रही है, वर्ष १८८६ मैं अल्मोड़ा के देवीदत्त जोशी जी ने सबसे पहले रामलीला का मंचन गेय नाट्य के रूप मैं किया था, इस से पहले अल्मोड़ा मैं केवल दशहरा के दिन एक दिन का जुलुश निकाला जाता था, और खुले मैदान मैं रावण का पुतला जलाया जाता था, उत्तरभारत मैं रामलीला प्रदर्शनों की लोकप्रियता को देखते हुए जोशी जी ने आरम्भ करने का निश्चय किया इसे गेय श्रेणी मैं शुरू भी किया, अल्मोड़ा मैं शुरू हुई उनकी यह गेय रामलीला शीघ्र समूचे गढ़वाल और कुमाऊं का प्रमुख आकर्षण का केंद्र बन गया, अल्मोड़ा मैं रामलीला की शुरुआत के पश्चात अल्मोड़ा शहर मैं ही नंदा देवी, जाखदेवी, पांडेखोला, श्री लक्ष्मीभंडार, हुक्का क्लब, धारानौला, मुरली मनोहर आदि स्थानों मैं पर भी रामलीला प्रारम्भ होने लगी, रामलीला का प्रभाव अन्य जिलों पिथौरागढ़ और नैनीताल पर भी पड़ा कुमाऊं मैं रामलीला का प्रचार प्रसार शुरू होने से रामलीला मैं नवीनता आने लगी, बाद मैं धीरे धीरे कई स्थानों पर इसका मंचन कुमाउनी भाषा मैं भी होने लगा।
कांसखेत की रामलीला (Popular Ramleela in Kanskhet) -
पौड़ी गढ़वाल मैं रामलीला का मंचन कई स्थानों पर किया जाता है उनमे प्रसिद्ध है कांसखेत की रामलीला, कांसखेत की रामलीला का गढ़वाल मैं एक महत्वपूर्ण स्थान है, कांसखेत की रामलीला इंटर कालेज कांसखेत और गाँव के लोगो द्वारा मिलकर किया जाता है, रामलीला सर्दियों मैं नवम्बर महीने मैं एक सप्ताह के लिए आयोजित की जाती है, गढ़वाल क्षेत्र मैं नवम्बर माह मैं रामलीला का आयोजन का मुख्य कारण लोग बताते है इस समय गांव के सभी लोग कृषि कार्यों से निवृत हो जाते है, कांसखेत की रामलीला मैं अभी भी एक परम्परा चली आ रही है की यदि कोई व्यक्ति राम वनवास का दृश्य देखेगा तो उसे राजतिलक का दृश्य भी देखना होगा, इसलिए वनवास के दिन काम दर्शक आते थे, कांसखेत की रामलीला मैं छम्मीलाल ढौंडियाल की 'श्री सम्पूर्ण रामलीला अभिनय' का प्रयोग रामलीला पात्रों द्वारा कुछ संवाद रुचिपूर्वक गाया जाता है, धीरे धीरे रामलीला के प्रति नयी युवापीढ़ी की रूचि काम होती जा रही है।
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सुमाड़ी की रामलीला (Popular Ramleela in Sumadi) -
गढ़वाल की रामलीलाओं के मंचन मैं यदि सबसे अधिक नाम लिया जाता है तो वह है सुमाड़ी गाँव की रामलीला, गौलक्ष्य पर्वत पर बसा गाँव सुमाड़ी ग्राम का इतिहास इस बात का साक्ष्य है सुमाड़ी गाँव कला और अपने सांस्कृतिक वैभव के लिए आज भी जाना जाता है, सुमाड़ी ग्राम का लोकमंच काफी पुराना है, वर्ष १९१९ मैं राम सेवक मंडल के गठन के साथ ही रामलीला का मंचन शुरू किया गया था मंडल के सदस्य और प्रथम रामलीला के कलाकार जिन्हे आज भी गर्व से याद किया जाता है उनमें प्रमुख है - दक्षण दत्त काला, गुणानंद काला, रघुनाथ काला, महेश प्रसाद घिल्डियाल, सत्य प्रसाद घिल्डियाल, बृजमोहन रुडोला, रविदत्त बहुगुणा, परशुराम कागड़ियाल आदि। सुमाड़ी की रामलीला मैं गढ़वाली गीतों का भी प्रयोग किया जाता रहा है, यहाँ की रामलीला आज भी अपने पुरे धार्मिक अनुष्ठान के साथ आयोजित की जाती है जिस कारण आज भी ग्रामीणों की श्रद्धा का केंद्र है।
टिहरी की रामलीला (Popular Ramleela in Tehri) -
२८ दिसंबर १८१५ को महाराजा सुदर्शन शाह ने टिहरी की नीव रखी थी, भागीरथी और भिलंगना नदी के संगम जिसे गणेश प्रयाग नाम से जाना जाता था स्कन्द पुराण मैं धनुवंती के नाम से जानी जाती है १९५१ मैं श्री रामलीला अभिनय समिति टिहरी के गठन के साथ आधुनिक रामलीला का मंचन शुरू हुआ, इससे पहले भी टिहरी मैं रामलीला का मंचन होता था, परन्तु १९३३ मैं राजा नरेंद्र शाह की रानी कमलेन्दुमति की कार असिडेंट मैं मृत्यु होने पर राजा ने रामलीला पर हमेशा के लिए प्रतिबन्ध लगा दिया था, १९५१ मैं शुरू हुई रामलीला का सञ्चालन और देखरेख समिति द्वारा किया जाता था, नवरात्र के शुरू होता है रामलीला का मंचन और दशहरा तक चलता था।
देहरादून की रामलीला (Popular Ramleela in Dehradun) -
वैसे तो पुरे उत्तराखंड मैं रामलीलाओं का मंचन किया जाता है परन्तु देहरादून के अंदर कई रामलीला समितियां रामलीला का मंचन करती आ रही है, द्रोण घाटी कहलाने वाले इस शहर का कला और संस्कृति की दृष्टि से प्राचीन महत्व है इस नगर मैं कई रामलीला समितियों का उदय हुआ था मगर वर्त्तमान मैं कुछ समितियां की रह गयी है -
वाह बहुत ही सुंदर वर्णन जय श्री राम
ReplyDeleteधन्यवाद
Deleteआपका हार्दिक आभार
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