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Pauri Garhwal, Uttarakhand (जिला : पौड़ी गढ़वाल, उत्तराखंड)

Pauri Garhwal, Uttarakhand 

(जिला : पौड़ी गढ़वाल, उत्तराखंड)

पौड़ी गढ़वाल जिला वृत्ताकार रूप में है, जिसमें हरिद्वार, देहरादून, टिहरी गढ़वाल, रूद्वप्रयाग, चमोली, अल्‍मोड़ा और नैनीताल सम्मिलित है। यहां स्थित हिमालय, नदियां, जंगल और ऊंचे-ऊंचे शिखर यहां की खूबसूरती को अधिक बढ़ाते हैं। पौड़ी समुद्र तल से लगभग 1814 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। बर्फ से ढके हिमालय शिखर पौड़ी की खूबसूरती को कहीं अधिक बढ़ाते हैं।

Pauri Garhwal
सदियों से गढ़वाल हिमालय में मानव सभ्यता का विकास शेष भारतीय उप-महाद्वीपों के समानांतर रहा है। कत्युरी पहला ऐतिहासिक राजवंश था, जिसने एकीकृत उत्तराखंड पर शासन किया और शिलालेख और मंदिरों के रूप में कुछ महत्वपूर्ण अभिलेख छोड़ दिए | कत्युरी के पतन के बाद की अवधि में, यह माना जाता है कि गढ़वाल क्षेत्र 64 (चौसठ) से अधिक रियासतों में विखंडित हो गया था और मुख्य रियासतों में से एक चंद्रपुरगढ़ थी , जिस पर कनकपाल के वंशजो थे। 15 वीं शताब्दी के मध्य में चंद्रपुररगढ़ जगतपाल (1455 से 14 9 3 ईसवी), जो कनकपाल के वंशज थे, के शासन के तहत एक शक्तिशाली रियासत के रूप में उभरा । 15 वीं शताब्दी के अंत में अजयपाल ने चंदपुरगढ़ पर सिंहासन किया और कई रियासतों को उनके सरदारों के साथ एकजुट करके एक ही राज्य में समायोजित कर लिया और इस राज्य को गढ़वाल के नाम से जाना जाने लगा। इसके बाद उन्होंने 1506 से पहले अपनी राजधानी चांदपुर से देवलगढ़ और बाद में 1506 से 1519 ईसवी के दौरान श्रीनगर स्थानांतरित कर दी थी।

राजा अजयपाल और उनके उत्तराधिकारियों ने लगभग तीन सौ साल तक गढ़वाल पर शासन किया था, इस अवधि के दौरान उन्होंने कुमाऊं, मुगल, सिख, रोहिल्ला के कई हमलों का सामना किया था। गढ़वाल के इतिहास में गोरखा आक्रमण एक महत्वपूर्ण घटना थी। यह अत्यधिक क्रूरता के रूप में चिह्नित थी और ‘गोरखायनी’ शब्द नरसंहार और लूटमार सेनाओं का पर्याय बन गया था। दती और कुमाऊं के अधीन होने के बाद, गोरखा ने गढ़वाल पर हमला किया और गढ़वाली सेनाओ द्वारा कठोर प्रतिरोधों के बावजूद लंगूरगढ़ तक पहुंच गए। लेकिन इस बीच, चीनी आक्रमण की खबर आ गयी और गोरखाओं को घेराबंदी करने के लिए मजबूर किया गया। हालांकि 1803 में उन्होंने फिर से एक आक्रमण किया। कुमाऊं को अपने अधीन करने के बाद गढ़वाल में त्रिय(तीन) स्तम्भ आक्रमण किया हैं। पांच हज़ार गढ़वाली सैनिक उनके इस आक्रमण के रोष के सामने टिक नही सके और राजा प्रदीमन शाह अपना बचाव करने के लिए देहरादून भाग गए। लेकिन उनकी सेनाएं की गोरखा सेनाओ के साथ कोई तुलना नही हो सकती थी । गढ़वाली सैनिकों भारी मात्रा में मारे गए और खुद राजा खुडबुडा की लड़ाई में मारे गए । 1804 में गोरखा पूरे गढ़वाल के स्वामी बन गए और बारह साल तक क्षेत्र पर शासन किया।

सन 1815 में गोरखों का शासन गढ़वाल क्षेत्र से समाप्त हुआ, जब अंग्रेजों ने गोरखाओं को उनके कड़े विरोध के बावजूद पश्चिम में काली नदी तक खिसका दिया था। गोरखा सेना की हार के बाद, 21 अप्रैल 1815 को अंग्रेजों ने गढ़वाल क्षेत्र के पूर्वी, गढ़वाल का आधा हिस्सा, जो कि अलकनंदा और मंदाकिनी नदी के पूर्व में स्थित है, जोकि बाद में, ‘ब्रिटिश गढ़वाल’ और देहरादून के दून के रूप में जाना जाता है, पर अपना शासन स्थापित करने का निर्णय लिया । पश्चिम में गढ़वाल के शेष भाग जो राजा सुदर्शन शाह के पास था, उन्होंने टिहरी में अपनी राजधानी स्थापित की । प्रारंभ में कुमाऊं और गढ़वाल के आयुक्त का मुख्यालय नैनीताल में ही था लेकिन बाद में गढ़वाल अलग हो गया और 1840 में सहायक आयुक्त के अंतर्गत पौड़ी जिले के रूप में स्थापित हुआ और उसका मुख्यालय पौड़ी में गठित किया गया।

आजादी के समय, गढ़वाल, अल्मोड़ा और नैनीताल जिलों को कुमाऊं डिवीजन के आयुक्त द्वारा प्रशासित किया जाता था । 1960 के शुरुआती दिनों में, गढ़वाल जिले से चमोली जिले का गठन किया गया । 1969 में गढ़वाल मण्डल पौड़ी मुख्यालय के साथ गठित किया गया । 1998 में रुद्रप्रयाग के नए जिले के निर्माण के लिए जिला पौड़ी गढ़वाल के खिर्सू विकास खंड के 72 गांवों के लेने के बाद जिला पौड़ी गढ़वाल आज अपने वर्तमान रूप में पहुंच गया है।


पर्यटन स्थल

कंडोलिया

शिव मंदिर (कंडोलिया देवता) पौड़ी से दो किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। कंडोलिया देवता का यह मंदिर वहां के भूमि देवता के रूप में पूजे जाते हैं। इस मंदिर के समीप ही खूबसूरत पार्क और खेल परिसर भी स्थित है। इससे कुछ मिनट की दूरी पर ही एशिया का सबसे ऊचा स्‍टेडियम रांसी भी है। गर्मियों के दौरान कंडोलिया पार्क में पर्यटकों की भारी मात्रा में भीड़ देखी जा सकती है। यहां आने वाले पर्यटक अपने परिवार के साथ यहां का पूरा-पूरा मजा उठाते हैं। इस पार्क के एक तरफ खुबसूरत पौड़ी शहर देखा जा सकता हैं वहीं दूसरी ओर गंगवारेशियन घाटी भी स्थित है। कन्डोलिया मन्दिर से सर्दियों में हिमालय बहुत सुंदर दिखाई देता है। हिमालय की बन्दर पूछ, केदारनाथ, चौखम्बा, नीलकन्ठ, त्रिशूल आदि चोटियों के यहाँ से बहुत खूबसूरत दर्शन होते हैं।

बिंसर महादेव

बिंसर महादेव मंदिर 2480 मी. ऊंचाई पर स्थित है। यह पौड़ी से 114 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह जगह अपनी प्राकृतिक सौन्‍दर्यता के लिए जानी जाती है। यह मंदिर भगवान हरगौरी, गणेश और महिषासुरमंदिनी के लिए विशेष रूप से प्रसिद्ध है। इस मंदिर को लेकर यह माना जाता है कि यह मंदिर महाराजा पृथ्‍वी ने अपने पिता बिन्‍दु की याद में बनवाया था। इस मंदिर को बिंदेश्‍वर मंदिर के नाम से भी जाना जाता है।

ताराकुंड

ताराकुंड समुद्र तल से 2,200 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। ताराकुंड बहुत ही खूबसूरत एवं आकर्षित जगह है। जो पर्यटकों का ध्‍यान अपनी ओर अधिक खींचती है। ताराकुंड अधिक ऊंचाई पर स्थित होने के कारण यहां से आस-पास का नजारा काफी मनमोहक लगता है। एक छोटी सी झील और बहुत पुराना मंदिर इस जगह को ओर अधिक सुंदर बनाता है। साथ ही ऊंची पहाड़ियों के बीच बने मंदिर के साथ नौ बांस गहरा कुआं भी है, जो खुद में एक आश्चर्य है, बताया जाता है कि स्वर्गारोहण के वक्त पांडव यहां आए थे और उन्होंने ही ये मंदिर बनाया था। यहां तीज का त्‍यौहार, यहां रहने वाले स्‍थानीय निवासियों द्वारा बहुत ही धूम-धाम के साथ मनाया जाता है। क्‍योंकि यह त्‍यौहार विशेष रूप से भूमि देवता को समर्पित होता है। ताराकुंड पहुंचने का एक रास्ता सिरतोली गांव से होकर भी जाता है.

कण्वाश्रम

कण्वाश्रम मालिनी नदी के किनारे स्थित है। कोटद्वार से इस स्‍थान की दूरी 14 किलोमीटर है। यहां स्थित कण्व ऋषि आश्रम बहुत ही महत्‍वपूर्ण एवं ऐतिहासिक जगह है। ऐसा माना जाता है कि सागा विश्‍वमित्रा ने यहां पर तपस्‍या की थी। भगवानों के देवता इंद्र उनकी तपस्‍या देखकर अत्‍यंत चिंतित होगए और उन्‍होंने उनकी तपस्‍या भंग करने के लिए मेनका को भेजा। मेनका विश्‍वामित्र की तपस्‍या को भंग करने में सफल भी रही। इसके बाद मेनका ने कन्‍या के रूप में जन्‍म लिया और पुन: स्‍वर्ग आ गई। बाद में वहीं कन्‍या शकुन्‍तला के नाम से जाने जानी लगी। और उनका विवाह हस्तिनापुर के महाराजा से हो गया। शकुन्‍लता ने कुछ समय बाद एक पुत्र को जन्‍म दिया। जिसका नाम भारत रखा गया। भारत के राजा बनने के बाद ही हमारे देश का नाम भारत' रखा गया।

दूधातोली

दूधातोली 31,00मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। यह स्‍थान जंगल से घिरा हुआ है। यहां तक पंहुचने के लिए थलीसैन से होते हुए पीठसैण पंहुच कर पंहुचा जा सकता है।

सड़क द्वारा पीठसैण से दूधातोली की दूरी 10 किलोमीटर है। दूधातोलीपौड़ी के खूबसूरत स्‍थानों में से एक है। यह स्‍थान हिमालय के चारों ओर से घिरा हुआ है। यहां का नजारा बहुत ही आकर्षक है जो यहां आने वाले पर्यटकों को सदैव ही अपनी ओर आ‍कर्षित करता है। गढ़वाल के स्‍वतंत्रता सेनानी वीर चन्‍द्र सिंह गढ़वाली को भी यह स्‍थान काफी पसंद आया था। इसलिए उनकी यह अंन्तिम इच्‍छा थी कि उनकी मृत्‍यु के बाद उनके नाम से एक स्‍मारक यहां पर बनाया जाए। यह स्‍मारक ओक के बड़े-बड़े वृक्षों के बीच स्थित है। जिस पर बड़े-बड़े अक्षरों में 'नेवर से डाई' लिखा गया है।

ज्वाल्‍पा देवी मंदिर

यह क्षेत्र प्रसिद्ध शक्ति पीठ माता दुर्गा को समर्पित है। इस स्‍थान की दूरी पौड़ी कोटद्वार सड़क मार्ग 33 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह स्‍थान भी प्रमुख धार्मिक स्‍थानों में से एक है। हर साल भक्‍तगण भारी संख्‍या में माता के दर्शनों के लिए यहां आते हैं। पौड़ी कोटद्वार सड़क मार्ग से पौड़ी स्थित ज्वालपा देवी मंदिर की दूरी 34 किलोमीटर है। हर साल नवरात्रों के अवसर पर यहां ज्वालपा देवी विशेष रूप से पूजा-अर्चना की जाती है। यहां पर एक संस्कृत विद्यालय भी है, जहां दूर-दूर से आने वाले विद्यार्थी शिक्षा-दीक्षा ग्रहण करते हैं

खिर्सू

खिर्सू मंडल मुख्यालय पौड़ी से 19 किमी की दूरी पर स्थित है। खिर्सू से हिमालय की रेंज के दीदार होते हैं, यह एक पर्यटक ग्राम है। यहीं कारण है कि यह जगह भारी संख्‍या में पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करती है। यहां से बहुत से जाने-अनजाने नाम वाले शिखरों का नजारा देखा जा सकता है। यह पौड़ी से 19 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। खिर्सू काफी शन्तिपूर्ण स्‍थल है। इसके अलावा खिर्सू पूरी तरह से प्रदूषण रहित जगह है। यह जगह ओक, देवदार और सेब के बगीचों से घिरी हुई है। यहां सबसे पुराने गं‌ढीयाल देवता का मंदिर भी स्थित है।


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