Haridwar, Uttarakhand
(जिला : हरिद्वार, उत्तराखंड)
जनसंख्या - 18,90,422 [2011 Census] (2011 के अनुसार )
घनत्व - 801/किमी2 (2,075/मील2)
क्षेत्रफल - 2360 वर्ग किमी कि.मी²
ऊँचाई (AMSL) - 249.7 मीटर (819 फी॰)
हरिद्वार जिले का क्षेत्रफल लगभग 2360 वर्ग किलोमीटर है जो उत्तराखंड राज्य के पश्चिमी भाग में है। यह अक्षांश और देशांतर क्रमशः 29.58 डिग्र्री उत्तर और 78.13 डिग्री पूर्व में है। समुद्र तल से उंचाई 249.7 मीटर है। यह जिला 28 दिसंबर, 1988 को अस्तित्व में आया। उत्तराखंड राज्य में शामिल होने से पहले यह जिला सहारनपुर मंडल का हिस्सा था। इस जिले के पश्चिम में सहारनपुर, उत्तर और पूर्व में देहरादून, पूर्व में पौड़ी गढ़वाल, दक्षिण में मुजफरनगर और बिजनौर जिले हैं। जिला मुख्यालय रोशनाबाद में है जो हरिद्वार रेलवे स्टेशन से 12 किमी दूरी पर स्थित है। जिलाधिकारी कार्यालय, विकास भवन, जिला न्यायपालिका, एस0एस0पी0 कार्यालय, पुलिस लाइन, जिला कारागार, जिला स्टेडियम, जवाहर नवोदय विद्यालय आदि इस क्षेत्र्ा के प्रमुख प्रतिष्ठान हैं। जिला प्रशासनिक रूप से चार तहसील में विभाजित हैं जो हैं हरिद्वार,रूड़की,लक्सर,भगवानपुर और छह विकास खंड में जो हैं भगवानपुर,रूड़की,नारसन,बहादराबाद,खानपुर,लक्सर। 2011 की जनगणना के अनुसार जिले की आबादी 18,90,422 है। गंगा नदी के किनारे स्थित होने के कारण हरिद्वार में पर्याप्त जल संसाधन हैं और खेतों में लगभग सभी तरह के अनाजों की पैदावार की जाती है।
हरिद्वारे यदा याता विष्णुपादोदकी तदा।
तदेव तीर्थं प्रवरं देवानामपि दुर्लभम्।।
तत्तीर्थे च नरः स्नात्वा हरिं दृष्ट्वा विशेषतः।
प्रदक्षिणं ये कुर्वन्ति न चैते दुःखभागिनः।।
तीर्थानां प्रवरं तीर्थं चतुर्वर्गप्रदायकम्।
कलौ धर्मकरं पुंसां मोक्षदं चार्थदं तथा।।
यत्र गंगा महारम्या नित्यं वहति निर्मला।
एतत्कथानकं पुण्यं हरिद्वाराख्यामुत्तमम्।।
उक्तं च शृण्वतां पुंसां फलं भवति शाश्वतम्।
अश्वमेधे कृते यागे गोसहस्रे तथैव च।।
अर्थात् भगवान विष्णु के चरणों से प्रकट हुई गंगा जब हरिद्वार में आयी, तब वह देवताओं के लिए भी दुर्लभ श्रेष्ठ तीर्थ बन गया। जो मनुष्य उस तीर्थ में स्नान तथा विशेष रूप से श्रीहरि के दर्शन करके उन की परिक्रमा करते हैं वह दुःख के भागी नहीं होते। वह समस्त तीर्थों में श्रेष्ठ और धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष रूप चारों पुरुषार्थ प्रदान करने वाला है। जहां अतीव रमणीय तथा निर्मल गंगा जी नित्य प्रवाहित होती हैं उस हरिद्वार के पुण्यदायक उत्तम आख्यान को कहने सुनने वाला पुरुष सहस्त्रों गोदान तथा अश्वमेध यज्ञ करने के शाश्वत फल को प्राप्त करता है।
वर्तमान
हरिद्वार क्षेत्र छठी शताब्दी ईसा
पूर्व में प्राचीन कोशल राज्य का हिस्सा था,
जो बाद में नंद तथा मौर्य वंश द्वारा शासित मगध साम्राज्य का
हिस्सा बन गया। १८४
ईसा पूर्व में मौर्य वंश
के पतन के साथ
ही यह शुंग राजवंश के
वर्चस्व के अधीन आ
गया, और ७२ ईसा
पूर्व तक रहा। इसके
बाद यहां २२६ ईस्वी
तक कुशानों का राज चलने
के बाद ३२० ईस्वी
से ९८० ईस्वी के
अंत तक गुप्त साम्राज्य का शासन रहा।
दिल्ली
सल्तनत के शासनकाल के
समय यह क्षेत्र दिल्ली
सूबे का हिस्सा था अकबर और उनके तत्काल
उत्तराधिकारियों के समय में
यह सहारनपुर में रहने वाले
अधिकारी के अधीन था,
और उस समय सहारनपुर और हरिद्वार में तांबे के
सिक्कों के टकसाल थे। जिले के बाद
के इतिहास में सिखों और मराठों के आक्रमण का
उल्लेख है। १८५७ के विद्रोह के समय रुड़की, कनखल, ज्वालापुर और हरिद्वार के जंगलों में
स्वतंत्रता सेनानियों और ब्रिटिश सेना
के बीच कई छिटपुट
लड़ाइयाँ भी लड़ी गई
थी।
ब्रिटिश
काल में इस क्षेत्र
में प्रशासनिक सुधार, राजस्व समाधान, शैक्षिक और चिकित्सा सुविधाओं,
और स्थानीय स्वशासन पर काफी काम
प्राधिकारियों द्वारा शुरू किया गया
था। मंगलौर, हरिद्वार और रुड़की में क्रमशः १८६०
, १८७३ और १८८४ में
नगरपालिका बोर्ड स्थापित किए गए थे। हरिद्वार में १९०० में गुरुकुल कांगडी की स्थापना हुई,
जो बाद के वर्षों
में प्राच्य अध्ययन (प्राचीन भारतीय संस्कृति के आधार पर)
के एक प्रमुख केंद्र
के रूप में विकसित
हुआ, और साथ ही कांग्रेस द्वारा चलाये गए विभिन्न आंदोलनों
के लिए गढ़ भी
रहा।
हरिद्वार
जिला, सहारनपुर डिवीजनल कमिशनरी के भाग के
रूप में २८ दिसम्बर
१९८८ को अस्तित्व में
आया। २४ सितंबर १९९८
के दिन उत्तर प्रदेश विधानसभा ने 'उत्तर प्रदेश
पुनर्गठन विधेयक, १९९८' पारित किया, अंततः भारतीय संसद ने भी 'भारतीय
संघीय विधान - उत्तर प्रदेश पुनर्गठन अधिनियम २०००' पारित किया, और इस प्रकार
९ नवम्बर २०००, के दिन हरिद्वार भारतीय गणराज्य के २७वें नवगठित
राज्य उत्तराखण्ड (तब उत्तरांचल), का
भाग बन गया।
दर्शनीय धार्मिक स्थल
अत्यंत प्राचीन काल से हरिद्वार में पाँच तीर्थों की विशेष महिमा बतायी गयी है:-
गंगाद्वारे कुशावर्ते बिल्वके नीलपर्वते।
तथा कनखले स्नात्वा धूतपाप्मा दिवं व्रजेत।।
अर्थात् गंगाद्वार, कुशावर्त, बिल्वक तीर्थ, नील पर्वत तथा कनखल में स्नान करके पापरहित हुआ मनुष्य स्वर्गलोक को जाता है।
इनमें से हरिद्वार (मुख्य) के दक्षिण में कनखल तीर्थ विद्यमान है, पश्चिम दिशा में बिल्वकेश्वर या कोटितीर्थ है, पूर्व में नीलेश्वर महादेव तथा नील पर्वत पर ही सुप्रसिद्ध चण्डीदेवी,अंजनादेवी आदि के मन्दिर हैं तथा पश्चिमोत्तर दिशा में सप्तगंग प्रदेश या सप्त सरोवर (सप्तर्षि आश्रम) है।
इन स्थलों के अतिरिक्त भी हरिद्वार में अनेक प्रसिद्ध दर्शनीय स्थल हैं।
सर्वाधिक दर्शनीय और महत्वपूर्ण तो यहाँ गंगा की धारा ही है। 'हर की पैड़ी' के पास जो गंगा की धारा है वह कृत्रिम रूप से मुख्यधारा से निकाली गयी धारा है और उस धारा से भी एक छोटी धारा निकालकर ब्रह्म कुंड में ले जायी गयी है। इसी में अधिकांश लोग स्नान करते हैं। गंगा की वास्तविक मुख्यधारा नील पर्वत के पास से बहती है। 'हर की पैड़ी' से चंडी देवी मंदिर की ओर जाते हुए ललतारो पुल से आगे बढ़ने पर गंगा की यह वास्तविक मुख्य धारा अपनी प्राकृतिक छटा के साथ द्रष्टव्य है। बाढ़ में पहाड़ से टूट कर आए पत्थरों के असंख्य टुकड़े यहाँ दर्शनीय है। इस धारा का नाम नील पर्वत के निकट होने से नीलधारा है। नीलधारा (अर्थात् गंगा की वास्तविक मुख्य धारा) में स्नान करके पर्वत पर नीलेश्वर महादेव के दर्शन करने का बड़ा माहात्म्य है।
हर की पौड़ी
'पैड़ी' का अर्थ होता है 'सीढ़ी'। कहा जाता है कि राजा विक्रमादित्य के भाई भर्तृहरि ने यहीं तपस्या करके अमर पद पाया था। भर्तृहरि की स्मृति में राजा विक्रमादित्य ने पहले पहल यह कुण्ड तथा पैड़ियाँ (सीढ़ियाँ) बनवायी थीं। इनका नाम 'हरि की पैड़ी' इसी कारण पड़ गया। यही 'हरि की पैड़ी' बोलचाल में 'हर की पौड़ी' हो गया है।
'हर की पौड़ी' हरिद्वार का मुख्य स्थान है। मुख्यतः यहीं स्नान करने के लिए लोग आते हैं। एक अन्य प्रचलित मान्यता के अनुसार कहा जाता है कि यहाँ धरती पर भगवान् विष्णु आये थे। धरती पर भगवान् विष्णु के पैर पड़ने के कारण इस स्थान को 'हरि की पैड़ी' कहा गया जो बोलचाल में 'हर की पौड़ी' बन गया है। इसे हरिद्वार का हृदय-स्थल माना जाता है।
मान्यता है कि दक्ष का यज्ञ हरिद्वार के निकट ही कनखल में हुआ था। लिंगमहापुराण में कहा गया है:-
यज्ञवाटस्तथा तस्य गंगाद्वारसमीपतः।
तद्देशे चैव विख्यातं शुभं कनखलं द्विजाः।।
अर्थात् (सूत जी कहते हैं) हे द्विजो ! गंगाद्वार के समीप कनखल नामक शुभ तथा विख्यात स्थान है; उसी स्थान में दक्ष की यज्ञशाला थी।
यहीं सती भस्म हो गयी थी। मान्यता है कि इसके बाद शिव जी के कोप से दक्ष-यज्ञ-विध्वंस हो जाने के बाद यज्ञ की पूर्णता के लिए हरिद्वार के इसी स्थान पर भगवान विष्णु की स्तुति की गयी थी और यहीं वे प्रकट हुए थे। बाद में यह किंवदंती फैल गयी कि यहाँ पर भगवान विष्णु के पैरों के निशान हैं। वास्तव में वह निशान कहीं नहीं है, लेकिन इस स्थान की महिमा अति की हद तक प्रचलित है।
हर की पौड़ी का सबसे पवित्र घाट ब्रह्मकुंड है। संध्या समय गंगा देवी की हर की पौड़ी पर की जाने वाली आरती किसी भी आगंतुक के लिए महत्त्वपूर्ण अनुभव है। स्वरों व रंगों का एक कौतुक समारोह के बाद देखने को मिलता है जब तीर्थयात्री जलते दीयों को नदी पर अपने पूर्वजों की आत्मा की शान्ति के लिए बहाते हैं। विश्व भर से हजारों लोग अपनी हरिद्वार-यात्रा के समय इस प्रार्थना में उपस्थित होने का ध्यान रखते हैं।
चण्डी देवी मन्दिर
माता चण्डी देवी का यह सुप्रसिद्ध मन्दिर गंगा नदी के पूर्वी किनारे पर शिवालिक श्रेणी के 'नील पर्वत' के शिखर पर विराजमान है। यह मन्दिर कश्मीर के राजा सुचत सिंह द्वारा १९२९ ई० में बनवाया गया था। स्कन्द पुराण की एक कथा के अनुसार, स्थानीय राक्षस राजाओं शुम्भ-निशुम्भ के सेनानायक चण्ड-मुण्ड को देवी चण्डी ने यहीं मारा था; जिसके बाद इस स्थान का नाम चण्डी देवी पड़ गया। मान्यता है कि मुख्य प्रतिमा की स्थापना आठवीं सदी में आदि शंकराचार्य ने की थी। मन्दिर चंडीघाट से ३ किमी दूरी पर स्थित है। मनसा देवी की तुलना में यहाँ की चढ़ाई कठिन है, किन्तु यहाँ चढ़ने-उतरने के दोनों रास्तों में अनेक प्रसिद्ध मन्दिर के दर्शन हो जाते हैं। अब रोपवे ट्राॅली सुविधा आरंभ हो जाने से अधिकांश यात्री सुगमतापूर्वक उसी से यहाँ जाते हैं, लेकिन लंबी कतार का सामना करना पड़ता है।
माता चण्डी देवी के भव्य मंदिर के अतिरिक्त यहाँ दूसरी ओर संतोषी माता का मंदिर भी है। साथ ही एक ओर हनुमान जी की माता अंजना देवी का मंदिर तथा हनुमान जी का मंदिर भी बना हुआ है। यहाँ की प्राकृतिक शोभा दर्शनीय है। मोरों को टहलते हुए निकट से सहज रूप में देखा जा सकता है।
मनसा देवी मन्दिर
हर की पैड़ी से प्रायः पश्चिम की ओर शिवालिक श्रेणी के एक पर्वत-शिखर पर मनसा देवी का मन्दिर स्थित है। मनसा देवी का शाब्दिक अर्थ है वह देवी जो मन की इच्छा (मनसा) पूर्ण करती हैं। मुख्य मन्दिर में दो प्रतिमाएँ हैं, पहली तीन मुखों व पाँच भुजाओं के साथ जबकि दूसरी आठ भुजाओं के साथ।
मनसा देवी के मंदिर तक जाने के लिए यों तो रोपवे ट्राली की सुविधा भी आरंभ हो चुकी है और ढेर सारे यात्री उसके माध्यम से मंदिर तक की यात्रा का आनंद उठाते हैं, लेकिन इस प्रणाली में लंबे समय तक प्रतीक्षा करनी होती है। इसके अतिरिक्त मनसा देवी के मंदिर तक जाने हेतु पैदल मार्ग भी बिल्कुल सुगम है। यहाँ की चढ़ाई सामान्य है। सड़क से 187 सीढ़ियों के बाद लगभग 1 किलोमीटर लंबी पक्की सड़क का निर्माण हो चुका है, जिस पर युवा लोगों के अतिरिक्त बच्चे एवं बूढ़े भी कुछ-कुछ देर रुकते हुए सुगमता पूर्वक मंदिर तक पहुंच जाते हैं। इस यात्रा का आनंद ही विशिष्ट होता है। इस मार्ग से हर की पैड़ी, वहाँ की गंगा की धारा तथा नील पर्वत के पास वाली गंगा की मुख्यधारा (नीलधारा) एवं हरिद्वार नगरी के एकत्र दर्शन अपना अनोखा ही प्रभाव दर्शकों के मन पर छोड़ते हैं। प्रातःकाल यहाँ की पैदल यात्रा करके लौटने पर गंगा में स्नान कर लिया जाय तो थकावट का स्मरण भी न रहेगा और मन की प्रफुल्लता के क्या कहने ! हालाँकि धार्मिकता के ख्याल से प्रायः लोग गंगा-स्नान के बाद यहाँ की यात्रा करते हैं।
माया देवी मन्दिर
माया देवी (हरिद्वार की अधिष्ठात्री देवी) का संभवतः ११वीं शताब्दी में बना यह प्राचीन मन्दिर एक सिद्धपीठ माना जाता है। इसे देवी सती की नाभि और हृदय के गिरने का स्थान कहा जाता है। यह उन कुछ प्राचीन मंदिरों में से एक है जो अब भी नारायणी शिला व भैरव मन्दिर के साथ खड़े हैं।
वैष्णो देवी मन्दिर
हर की पैड़ी से करीब 1 किलोमीटर दूर भीमगोड़ा तक पैदल या ऑटो-रिक्शा से जाकर वहाँ से ऑटो द्वारा वैष्णो देवी मंदिर तक सुगमतापूर्वक जाया जा सकता है। यहाँ वैष्णो देवी का भव्य मंदिर बना हुआ है। जम्मू के प्रसिद्ध वैष्णो देवी की अत्यधिक प्रसिद्धि के कारण इस मंदिर में वैष्णो देवी की गुफा की अनुकृति का प्रयत्न किया गया है। इस भव्य मंदिर में बाईं ओर से प्रवेश होता है। पवित्र गुफा को प्राकृतिक रूप देने की चेष्टा की गयी है। मार्ग की दुर्गमता को बनाये रखने का प्रयत्न हुआ है, हालाँकि गुफा का रास्ता तय करने में कोई कठिनाई नहीं होती है। हाँ अकेले नहीं जा कर दो-तीन आदमी साथ में जाना चाहिए। बाईं ओर से बढ़ते हुए घुमावदार गुफा का लंबा मार्ग तय करके माता वैष्णो देवी की प्रतिमा तक पहुँचा जाता है। वहीं तीन पिंडियों के दर्शन भी होते हैं। यह मंदिर भी काफी प्रसिद्धि प्राप्त कर चुका है।
भारतमाता मन्दिर
वैष्णो देवी मन्दिर से कुछ ही आगे भारतमाता मन्दिर है। इस बहुमंजिले मन्दिर का निर्माण स्वामी सत्यमित्रानंद गिरि के द्वारा हुआ है। तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी के द्वारा दीप प्रज्ज्वलित कर इस का लोकार्पण हुआ था। अपने ढंग का निराला यह मंदिर काफी प्रसिद्ध है। इसके विभिन्न मंजिलों पर शूर मंदिर, मातृ मंदिर, संत मंदिर, शक्ति मंदिर, तथा भारत दर्शन के रूप में मूर्तियों तथा चित्रों के माध्यम से भारत की बहुआयामी छवियों को रूपायित किया गया है। ऊपर विष्णु मंदिर तथा सबसे ऊपर शिव मंदिर है। हरिद्वार आने वाले यात्रियों के लिए भारत माता मंदिर के दर्शन से एक भिन्न और उत्तम अनुभूति की प्राप्ति तथा देशभक्ति की प्रेरणा अनायास हो जाती है।
सप्तर्षि आश्रम/सप्त सरोवर
'भारत माता मंदिर' से ऑटो द्वारा आगे बढ़कर आसानी से सप्तर्षि आश्रम तक पहुँचा जा सकता है। यहाँ जाने पर सड़क की दाहिनी ओर सप्त धाराओं में बँटी गंगा की निराली प्राकृतिक छवि दर्शनीय है। कहा जाता है कि यहाँ सप्तर्षियों ने तपस्या की थी और उनके तप में बाधा न पहुँचाने के ख्याल से गंगा सात धाराओं में बँटकर उनके आगे से बह गयी थी। गंगा की छोटी-छोटी प्राकृतिक धारा की शोभा बाढ़ में पहाड़ से टूट कर आये पत्थरों के असंख्य टुकड़ों के रूप में स्वभावतः दर्शनीय है। यहाँ सड़क की दूसरी ओर 'सप्तर्षि आश्रम' का निर्माण किया गया है। यहाँ मुख्य मंदिर शिवजी का है और उसकी परिक्रमा में सप्त ऋषियों के छोटे छोटे मंदिर दर्शनीय हैं। स्थान प्राकृतिक शोभा से परिपूर्ण है। अखंड अग्नि प्रज्ज्वलित रहती है और कुछ-कुछ दूरी पर सप्तर्षियों के नाम पर सात कुटिया बनी हुई है, जिनमें आश्रम के लोग रहते हैं।
शान्तिकुंज/गायत्री शक्तिपीठ
सुप्रसिद्ध मनीषी श्रीराम शर्मा आचार्य द्वारा स्थापित गायत्री परिवार का मुख्य केन्द्र 'शांतिकुंज' हरिद्वार से ऋषिकेश जाने के मार्ग में विशाल परिक्षेत्र में एक-दूसरे से जुड़े अनेक उपखंडों में बँटा आधुनिक युग में धार्मिक-आध्यात्मिक गतिविधियों का एक अन्यतम कार्यस्थल है। यहां का सुचिंतित निर्माण तथा अन्यतम व्यवस्था सभी श्रेणी के दर्शकों-पर्यटकों के मन को निश्चित रूप से मोहित करता है। यह संस्थान मुख्यत: श्रीराम शर्मा आचार्य द्वारा लिखित पुस्तकों तथा उनकी प्रेरणा से चल रही पत्रिकाओं के प्रकाशन का कार्य भी करता है। शोधकार्य भी इस संस्थान के अंतर्गत चलता रहता है। हरिद्वार जाने वाले यात्रियों के लिए इस संस्थान को देखे बिना हरिद्वार-यात्रा परिपूर्ण नहीं मानी जा सकती है, ऐसा अनुभव यहां आने वाले प्रत्येक यात्री को प्रायः होता ही है।
कनखल
हरिद्वार की उपनगरी कहलाने वाला 'कनखल' हरिद्वार से 3 किलोमीटर दूर दक्षिण दिशा में स्थित है। यहाँ विस्तृत आबादी एवं बाजार है। आबादी वाले तीर्थस्थलों में हरिद्वार का सबसे प्राचीन तीर्थ कनखल ही है। विभिन्न पुराणों में इसका नाम स्पष्टतः उल्लिखित है। गंगा की मुख्यधारा से 'हर की पैड़ी' में लायी गयी धारा कनखल में पुनः मुख्यधारा में मिल जाती है। महाभारत के साथ-साथ अनेक पुराणों में भी कनखल में गंगा विशेष पुण्यदायिनी मानी गयी है। इसलिए यहाँ गंगा-स्नान का विशेष माहात्म्य है। कनखल में ही दक्ष ने यज्ञ किया था, यह ऊपरिलिखित विवरण में दर्शाया जा चुका है। इस यज्ञ का शिवगणों ने विध्वंस कर डाला था। उक्त स्थल पर दक्षेश्वर महादेव का विस्तीर्ण मंदिर है।
पारद शिवलिंग
कनखल में श्रीहरिहर मंदिर के निकट ही दक्षिण-पश्चिम में पारद शिवलिंग का मंदिर है। इसका उद्घाटन पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने 8 मार्च 1986 को किया था। यहाँ पारद से निर्मित 151 किलो का पारद शिवलिंग है। मंदिर के प्रांगण में रुद्राक्ष का एक विशाल पेड़ है जिस पर रुद्राक्ष के अनेक फल लगे रहते हैं जिसे देखकर पर्यटक आश्चर्यमिश्रित प्रफुल्लता का अनुभव करते हैं।
दिव्य कल्पवृक्ष वन
देवभूमि हरिद्वार के कनखल स्थित नक्षत्र वाटिका के पास हरितऋषि विजयपाल बघेल के द्वारा कल्पवृक्ष वन लगाया गया है। वैसे तो देवलोक के पेड़ कल्पतरु (पारिजात) को सभी तीर्थ स्थलों पर रोपित किया जा रहा है, परन्तु धरती पर कल्पवृक्ष वन के रूप में एकमात्र यही वन विकसित है, जहाँ दुनिया भर के श्रद्धालु कल्पवृक्ष के दर्शन करके अपनी मनोकामना पूरी करते हैं।
पतंजलि योगपीठ
योगगुरु बाबा रामदेव का यह संस्थान भी कनखल क्षेत्र में ही अवस्थित है।
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