उत्तराखंड के सबसे लोकप्रिय शिव मंदिर
(Most Popular Shiva Temples in Uttarakhand)
उत्तराखंड को देवभूमि के नाम से जाना जाता है। यहां के हर एक कण में देवताओं का वास होता है, और उन सभी देवो मैं एक देव है देवों के देव महादेव, इन्हे कई नामों से जाना जाता है जैसे की भोलेनाथ, शंकर, महेश, रुद्र, नीलकंठ, गंगाधार। वह त्रिदेवों (ब्रम्हा, विष्णु और महेश) में से एक देव हैं। इनकी अर्धांगिनी (शक्ति) का नाम देवी पार्वती है। इनके पुत्र कार्तिकेय, अय्यपा और गणेश हैं, तथा पुत्रियां अशोक सुंदरी, ज्योति और मनसा देवी हैं। उनकी पूजा शिवलिंग तथा मूर्ति दोनों रूपों में की जाती है। महादेव के गले में नाग देवता विराजमन हैं और एक हाथ में डमरू और एक हाथ मैं त्रिशूल लिए हुए हैं। कैलाश में उनका वास है। महादेव को संहार का देवता कहा जाता है। शिव के कुछ प्रचलित नाम, महाकाल, आदिदेव, किरात, शंकर, चन्द्रशेखर, जटाधारी, नागनाथ, मृत्युंजय [मृत्यु पर विजयी], त्रयम्बक, महेश, विश्वेश, महारुद्र, विषधर, नीलकण्ठ, महाशिव, उमापति [पार्वती के पति], काल भैरव, भूतनाथ, ईवान्यन [तीसरे नयन वाले], शशिभूषण आदि। भगवान शिव को रूद्र नाम से जाता है रुद्र का अर्थ है रुत दूर करने वाला अर्थात दुखों को हरने वाला अतः भगवान शिव का स्वरूप कल्याण कारक है।
ॐ त्र्यम्बकं यजामहेसुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्॥
तो आइए जानते हैं उत्तराखंड के प्रमुख शिव मंदिरों के बारे में।
1. केदारनाथ मंदिर, रुद्रप्रयाग (Kedarnath Temple, Rudraprayag)
केदारनाथ में मंदाकिनी नदी के पास गढ़वाल हिमालय की शृंखलाओं में स्थित है भव्य केदारनाथ मंदिर। ऐसा माना जाता है कि महाभारत के युद्ध के बाद पांडवों ने तपस्या के लिए हरिद्वार होते हुए हिमालय की तीर्थ यात्रा की थी और उन्होंने दूर से ही भगवान शिव की एक झलक देखी लेकिन भगवान ने उनसे खुद को छुपा लिया। पांडव फिर गुप्तकाशी (रुद्रप्रयाग) की ओर बढ़े, और अंत में गौरीकुंड पहुंचे। फिर एक ज्योतिर्लिंग या एक दिव्य प्रकाश टिमटिमाया और भगवान शिव उसमें से विसर्जित हो गए। भगवन शिव ने पांडवों से कहा की अब से, मैं यहां त्रिकोणीय आकार के ज्योतिर्लिंग के रूप में रहूंगा, उसी स्थान पर पांडव वंश के जन्मेजय ने एक भव्य मंदिर का निर्माण पत्धरों से बने कत्यूरी शैली मैं करवाया। केदारनाथ मंदिर रूद्रप्रयाग जिले में स्थित है। यह मंदिर बारह ज्योतिर्लिंग मैं सम्मिलित होने के साथ चार धाम और पांच केदार मैं से भी एक है,
2.नीलकंठ महादेव मंदिर, यमकेश्वर, पौड़ी (Neelkanth Mahadev Temple, Yamkeshwar, Pauri)
गढ़वाल, उत्तरांचल में हिमालय पर्वतों के तल में बसा ऋषिकेश से ३५ किमी दूर, पौड़ी के यमकेश्वर ब्लॉक मैं स्थित है नीलकंठ महादेव मंदिर प्रमुख पर्यटन स्थल है। नीलकंठ महादेव मंदिर भगवान् शिव के सबसे पूज्य मंदिरों में से एक है। कहा जाता है कि भगवान शिव ने इसी स्थान पर समुद्र मंथन से निकला विष ग्रहण किया गया था। उसी समय उनकी पत्नी, पार्वती ने उनका गला दबाया जिससे कि विष उनके पेट तक नहीं पहुंचे। इस तरह, विष उनके गले में बना रहा। विषपान के बाद विष के प्रभाव से उनका गला नीला पड़ गया था। गला नीला पड़ने के कारण ही उन्हें नीलकंठ नाम से जाना गया था। अत्यन्त प्रभावशाली यह मंदिर भगवान शिव को समर्पित है। नीलकंठ महादेव मंदिर भगवान शिव को समर्पित सबसे प्रतिष्ठित हिंदू स्थलों में से एक है।
3. तुंगनाथ महादेव मंदिर (Tungnath Mahadev Temple, Rudraprayag)
तुंगनाथ उत्तराखण्ड के गढ़वाल के रुद्रप्रयाग जिले में स्थित एक पर्वत है। तुंगनाथ पर्वत पर स्थित समुन्द्र ताल से ३४६० मीटर की ऊंचाई पर स्थित है तुंगनाथ महादेव का मंदिर, यह मंदिर पंच केदारों (केदारनाथ, तुंगनाथ, रुद्रनाथ, मध्यमहेश्वर, कल्पेश्वर) मैं से एक है और पंच केदारों में सबसे ऊँचाई पर स्थित है। यह मंदिर हजारों वर्ष पुराना माना जाता है और यहाँ भगवान शिव की पंच केदारों में से एक के रूप में पूजा होती है। ऐसा माना जाता है की इस मंदिर का निर्माण पाण्डवों द्वारा भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए किया गया था, जो कुरुक्षेत्र में हुए नरसंहार के कारण पाण्डवों से रुष्ट थे। तुंगनाथ की चोटी तीन धाराओं का स्रोत है, जिनसे अक्षकामिनी नदी बनती है। मंदिर चोपता से ३ किलोमीटर दूर स्थित है। कहा जाता है कि पार्वती माता ने शिव जी को प्रसन्न करने के लिए यहां ब्याह से पहले तपस्या की थी ।
4. मध्यमहेश्वर महादेव मंदिर, रुद्रप्रयाग (Madhyamaheshwar Mahadev Temple, Rudraprayag)
मदमहेश्वर महादेव मंदिर, भारत के उत्तराखंड में गढ़वाल हिमालय के गौंडर गांव में स्थित भगवान शिव को समर्पित एक हिंदू मंदिर है। 3,497 मीटर (11,473.1 फीट) की ऊंचाई पर स्थित, ऊखीमठ मदमहेश्वर की शीतकालीन निवास स्थान है। मदमहेश्वर नदी के स्रोत के निकट यह शिव मंदिर पंच केदार (केदारनाथ, मदमेहश्वर, तुंगनाथ, रुद्रनाथ और कल्पेश्वर) का दूसरा केदार है। मान्यता है कि पांडवों द्वारा महाभारत में अपने ही भाइयों की गोत्र हत्या किये जाने से शिव नाराज थे. वे पांडवों से बचने के लिए हिमालय चले आये. बैल रूप धारण किये हिमालय में विचरते शिव को जब भीम ने पहचान लिया और उनका रास्ता रोकने की कोशिश की तो गुप्तकाशी में शिव जमीन के भीतर घुस गए. जब वे बाहर निकले तो उनके महिष रूपी शरीर के विभिन्न हिस्से अलग-अलग जगहों पर प्रकट हुए.
5. रुद्रनाथ महादेव मंदिर, चमोली (Rudranath Mahadev Temple, Chamoli)
उत्तराखंड राज्य के चमोली जिले मैं समुंद्रतल से २२९० मीटर की ऊंचाई पर स्थित है रुद्रनाथ महादेव का भव्य मन्दिर जो की भगवान शिव को समर्पित एक मन्दिर है जो कि पंचकेदार में से एक है। रुद्रनाथ मंदिर में भगवान शंकर के एकानन यानि मुख की पूजा की जाती है, जबकि संपूर्ण शरीर की पूजा नेपाल की राजधानी काठमांडू के पशुपतिनाथ में की जाती है। एक कथा के अनुसार इस मंदिर को पंचकेदार इसलिए माना जाता है कि महाभारत के युद्ध के बाद पांडवो अपने पाप से मुक्ति चाहते थे इसलिए भगवान श्रीकृष्ण ने पांडवो को सलाह दी थी कि वे भगवान शंकर का आर्शीवाद प्राप्त करे। इसलिए पांडवो भगवान शंकर का आर्शीवाद प्राप्त करने के लिए वाराणसी पहुंच गए परन्तु भगवान शंकर वाराणसी से चले गए और गुप्तकाशी में आकर छुप गए क्योकि भगवान शंकर पांडवों से नाराज थे पांडवो अपने कुल का नाश किया था। जब पांडवो गुप्तकाशी पंहुचे तो फिर भगवान शंकर केदारनाथ पहुँच गए जहां भगवान शंकर ने बैल का रूप धारण कर रखा था। पांडवो ने भगवान शंकर को खोज कर उनसे आर्शीवाद प्राप्त किया था। ऐसा माना जाता है कि जब भगवान शंकर बैल के रूप में अंतर्ध्यान हुए, तो उनके धड़ से ऊपर का भाग काठमाण्डू में प्रकट हुआ। अब वहां पशुपतिनाथ का प्रसिद्ध मंदिर है। शिव की भुजाएं तुंगनाथ में, मुख रुद्रनाथ में, नाभि मध्यमाहेश्वर में, भगवान शंकर बैल की पीठ की आकृति-पिंड के रूप में श्री केदारनाथ में पूजे जाते हैं और जटा कल्पेश्वर में प्रकट हुए। इसलिए इन पांच स्थानों में श्री रुद्रनाथ को पंचकेदार कहा जाता है।
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6. कल्पेश्वर महादेव मंदिर, चमोली (Kalpeshwar Mahadev Temple, Chamoli)
कल्पेश्वर मन्दिर उत्तराखण्ड के प्रमुख धार्मिक स्थलों में से एक है। यह मन्दिर उर्गम घाटी में समुद्र तल से लगभग 2134 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। इस मन्दिर में 'जटा' या हिन्दू धर्म में मान्य त्रिदेवों में से एक भगवान शिव के उलझे हुए बालों की पूजा की जाती है। कल्पेश्वर मन्दिर 'पंचकेदार' तीर्थ यात्रा में पाँचवें स्थान पर आता है। कल्पेश्वर में भगवान शंकर का भव्य मन्दिर बना है। कल्पेश्वर के बारे में पौराणिक ग्रंथों में विस्तार पूर्वक उल्लेख किया गया है। इस पावन भूमि के संदर्भ में कुछ रोचक कथाएँ भी प्रचलित हैं, जो इसके महत्व को विस्तार पूर्वक दर्शाती हैं। माना जाता है कि यह वह स्थान है, जहाँ महाभारत के युद्ध के पश्चात् विजयी पांडवों ने युद्ध में मारे गए अपने संबंधियों की हत्या करने की आत्मग्लानि से पीड़ित होकर इस क्षोभ एवं पाप से मुक्ति पाने हेतु वेदव्यास से प्रायश्चित करने के विधान को जानना चाहा। व्यास जी ने कहा की कुलघाती का कभी कल्याण नहीं होता है, परंतु इस पाप से मुक्ति चाहते हो तो केदार जाकर भगवान शिव की पूजा एवं दर्शन करो। व्यास जी से निर्देश और उपदेश ग्रहण कर पांडव भगवान शिव के दर्शन हेतु यात्रा पर निकल पड़े। पांडव सर्वप्रथम काशी पहुँचे। शिव के आशीर्वाद की कामना की, परंतु भगवान शिव इस कार्य हेतु इच्छुक न थे। पांडवों को गोत्र हत्या का दोषी मानकर शिव पांडवों को दर्शन नहीं देना चाहते थे। पांडव निराश होकर व्यास द्वारा निर्देशित केदार की ओर मुड़ गये। पांडवों को आते देख भगवान शंकर गुप्तकाशी में अन्तर्धान हो गये। उसके बाद कुछ दूर जाकर महादेव ने दर्शन न देने की इच्छा से 'महिष' यानि भैसें का रूप धारण किया व अन्य पशुओं के साथ विचरण करने लगे। पांडवों को इसका ज्ञान आकाशवाणी के द्वारा प्राप्त हुआ। अत: भीम ने विशाल रूप धारण कर दो पहाडों पर पैर फैला दिये, जिसके निचे से अन्य पशु तो निकल गए, पर शिव रूपी महिष पैर के नीचे से जाने को तैयार नहीं हुए। भीम बलपूर्वक भैंसे पर झपट पड़े, लेकिन बैल दलदली भूमि में अंतर्ध्यान होने लगा। तब भीम ने बैल की पीठ को पकड़ लिया। भगवान शंकर की भैंसे की पीठ की आकृति पिंड रूप में केदारनाथ में पूजी जाती है। ऐसा कहा जाता है कि जब भगवान शिव भैंसे के रूप में पृथ्वी के गर्भ में अंतर्ध्यान हुए तो उनके धड़ का ऊपरी भाग काठमांडू में प्रकट हुआ, जहाँ पर 'पशुपतिनाथ' का मन्दिर है। शिव की भुजाएँ 'तुंगनाथ' में, नाभि 'मध्यमेश्वर' में, मुख 'रुद्रनाथ' में तथा जटा 'कल्पेश्वर' में प्रकट हुए। यह चार स्थल पंचकेदार के नाम से विख्यात हैं। इन चार स्थानों सहित श्री केदारनाथ को 'पंचकेदार' भी कहा जाता है।
7. जागेश्वर धाम, अल्मोड़ा (Jageshwar Dham, Almora)
उत्तराखंड के अल्मोड़ा से ३५ किलोमीटर दूर स्थित केंद्र जागेश्वर धाम के प्राचीन मंदिर प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर इस क्षेत्र को सदियों से आध्यात्मिक जीवंतताप्रदान कर रहे हैं। यहां लगभग २५० मंदिर हैं जिनमें से एक ही स्थान पर छोटे-बडे २२४ मंदिर स्थित हैं। जागेश्वर धाम को ज्योतिर्लिंग (अस्थम ज्योतिर्लिंग - नागेशम दारुकवने) में से एक के रूप में जाना जाता है। कई पारंपरिक शास्त्रों में, इसे बारह मूल के ज्योतिर्लिंगों में से एक माना जाता है। इसे देवताओं की घाटी के नाम से भी जाना जाता है, पुराणों के अनुसार शिवजी तथा सप्तऋषियों ने यहां तपस्या की थी। कहा जाता है कि प्राचीन समय में जागेश्वर मंदिर में मांगी गई मन्नतें उसी रूप में स्वीकार हो जाती थीं जिसका भारी दुरुपयोग हो रहा था। आठवीं सदी में आदि शंकराचार्य जागेश्वर आए और उन्होंने महामृत्युंजय में स्थापित शिवलिंग को कीलित करके इस दुरुपयोग को रोकने की व्यवस्था की। शंकराचार्य जी द्वारा कीलित किए जाने के बाद से अब यहां दूसरों के लिए बुरी कामना करने वालों की मनोकामनाएंपूरी नहीं होती केवल यज्ञ एवं अनुष्ठान से मंगलकारी मनोकामनाएं ही पूरी हो सकती हैं।
8. बैजनाथ मंदिर, बागेश्वर (Baijnath Temple – Bageshwar)
उत्तराखंड के बागेश्वर जिले मैं गोमती नदी के बाएं किनारे पर स्थित हैं बैजनाथ का मंदिर। मुख्य मंदिर के रास्ते में बामणी का मंदिर (संस्कृत ब्रह्मणी का भ्रष्ट रूप) है। कहा जाता है कि यह जगह ब्राह्मण विधवा के द्वारा बनाई गई थी और भगवान शिव को उसके द्वारा समर्पित किया गया था। एक और कहानी के अनुसार एक ब्राह्मण महिला जिसे क्षत्रिय ने अपहरण कर लिया था ने इसका निर्माण किया। उसने इस मंदिर को अपने पापों के क्षमन के लिए भगवान शिव को समर्पित कर दिया। मंदिर के अंदर शिव की एक मूर्ति है, इसमें कोई शिलालेख नहीं है। मंदिर का निर्माण तिलिहाटा समूह से भिन्न नहीं है, इसलिए यह भी इसी अवधि का कहा जा सकता है। मुख्य मंदिर, बैजनाथ या वैद्यनाथ (शिव का एक नाम) को समर्पित है, जो वर्तमान में गांव का नाम भी है और गोमती नदी के पास स्थित है। कत्यूरी रानी के आदेशों द्वारा नदी के किनारे बनायीं गई पत्थरों की सीडियों से भी मंदिर में पहुंचा जा सकता है। यह जगह निवासियों की स्नान की जगह थी जिसे वर्तमान में मंदिर के निकट एक कच्चे तालाब में परवर्तित किया गया है। बैजनाथ कौसानी से 19 किमी दूर और बागेश्वर से 26 किमी दूर है। एक समय यह कत्यूरी राजवंश के राजाओं की राजधानी थी और इस जगह को कार्तिकपुरा कहा जाता था।
9. गोपीनाथ मंदिर, गोपेश्वर (Gopinath Temple- Gopeshwar)
भारत के उत्तराखण्ड राज्य के चमोली जिले के गोपेश्वर में स्थित है गोपीनाथ मंदिर एक प्राचीन मंदिर है जो भगवान शिव को समर्पित है। गोपीनाथ मंदिर एक हिन्दू मंदिर है गोपीनाथ मंदिर गोपेश्वर ग्राम में है जो अब गोपेश्वर कस्बे का भाग है। यह मंदिर अपने वास्तु के कारण अलग ही पहचान रखता है, इसका एक शीर्ष गुम्बद और ३० वर्ग फुट का गर्भगृह है, जिस तक २४ द्वारों से पहुँचा जा सकता है। मंदिर के आसपास टूटी हुई मूर्तियों के अवशेष इस बात का संकेत करते हैं कि प्राचीन समय में यहाँ अन्य भी बहुत से मंदिर थे। मंदिर के आंगन में एक ५ मीटर ऊँचा त्रिशूल है, जो १२ वीं शताब्दी का है और अष्ट धातु का बना है। इस पर नेपाल के राजा अनेकमल्ल, जो १३ वीं शताब्दी में यहाँ शासन करता था, का गुणगान करते अभिलेख हैं। उत्तरकाल में देवनागरी में लिखे चार अभिलेखों में से तीन की गूढ़लिपि का पढ़ा जाना शेष है। दन्तकथा है कि जब भगवान शिव ने कामदेव को मारने के लिए अपना त्रिशूल फेंका तो वह यहाँ गढ़ गया। त्रिशूल की धातु अभी भी सही स्थित में है जिस पर मौसम प्रभावहीन है और यह एक आश्वर्य है। यह माना जाता है कि शारिरिक बल से इस त्रिशुल को हिलाया भी नहीं जा सकता, जबकि यदि कोई सच्चा भक्त इसे छू भी ले तो इसमें कम्पन होने लगता है।
10. विश्वनाथ मंदिर, गुप्तकाशी (Vishwanath Temple- Guptkashi)
उत्तराखंड के जिला रुद्रप्रयाग के शहर गुप्तकाशी में एक मंदिर विख्यात है जिसका नाम है विश्वनाथ मंदिर। यह मंदिर समुद्रतट से 1319 मीटर की ऊँचाई पर स्थित भगवान शिव के पवित्र धाम केदारनाथ से गुप्तकाशी मात्र 47 किमी नीचे की ओर स्थित है। यह शहर उत्तराखंड का पवित्र शहर है यह मंदाकिनी नदी के समीप स्थित है। पौराणिक कथा अनुसार कौरवों और पांडवों में जब युद्ध हुआ तो वहाँ पर पांडवों ने कई व्यक्तियों को और अपने भाइयों का भी वध कर दिया था तो उसी वध के कारण उन्हें बहुत सारे दोष लग गए थे। पांडवों को उन्हीं दोषों के निवारण करने के लिए भगवान शिव से माफ़ी मांग उनका आशीर्वाद लेना था, लेकिन वह पांडवों से रुष्ठ हो गए थे क्योंकि उस युद्ध के दौरान पांडवों ने भगवान शिव के भी भक्तों का वध कर दिया था। उन्हीं दोषों से मुक्ति पाने के लिए पांडवों ने पूजा-अर्चना की और भगवान शंकर के दर्शन करने के लिए निकल पड़े। भगवान शिव हिमालय के इसी स्थान पर ध्यान मग्न थे और जब भगवान को पता चला कि पांडव इसी स्थान पर आ रहे है तो वह यहीं बैल नंदी का रूप धारण कर अंतर्ध्यान हो गए या यूं कहें गुप्त हो गए इसलिए इस जगह का नाम गुप्तकाशी पड़ा। यह मंदिर उन्हीं का प्रतीक है।
11.ताड़केश्वर महादेव मंदिर (Tadkeswar Mahadev Temple, Lansdowne)
लैंसडाउन से 38 किमी की दूर, समुन्द्र ताल से 1800 मीटर की ऊंचाई पर स्थित यह ताड़केश्वर महादेव मंदिर देवदार के पेड़ों और शांत वातावरण से घिरा हुआ है, जोकि भगवान शिव को समर्पित, हिन्दुओं की आस्था का प्रतिक है, मंदिर परिसर मैं एक कुंड भी है, मान्यताओं के अनुसार देवी लक्ष्मी ने इस कुंड को खोदा था, इस जल से भगवान शिव का अभिषेक किया जाता है, भगवान शिव को प्रशन्न करने के लिए तारकासुर नमक राक्षस ने इसी जगह पर तपस्या की थी और अमरता का वरदान पाया था, कार्तिकेय द्वारा जब तारकासुर का वध किया गया तो उसने फिर माफ़ी मांगने हेतु इसी स्थान पर तपस्या की थी तभी से इस स्थान का नाम तारकेश्वर हुआ। पहले ताड़केश्वर महादेव मंदिर में एक शिवलिंग मौजूद था, लेकिन अब तांडव करने वाली एक भगवान शिव की मूर्ति की पूजा की जाती है। यह भगवान शिव की मूर्ति कुछ साल पहले उसी स्थान पर खोजी गई थी जहां शिवलिंग मौजूद था। कई भक्तों का मानना था कि भगवान शिव अभी भी वहां हैं और गहरी नींद में हैं। हजारों घंटियों ने मंदिर को घेर लिया जो भक्तों द्वारा चढ़ाया जाता है।
12. पाताल भुवनेश्वर (Patal Bhuvneshwar, Gangolihat, Pithoragarh)
उत्तराखण्ड के पिथौरागढ़ जिले में गंगोलीहाट नगर से १४ किमी दूरी पर स्थित है पाताल भुवनेश्वर की गुफा। इस गुफा में धार्मिक तथा ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण कई प्राकृतिक कलाकृतियां स्थित हैं यहाँ पर भगवान शिव के शिवलिंगों की कलाकृतियां है जो की हिन्दुओं की धार्मिक आस्था का प्रतीक है, यह गुफा भूमि से ९० फ़ीट नीचे है, तथा लगभग १६० वर्ग मीटर क्षेत्र में विस्तृत है। इस गुफा की खोज राजा ऋतुपर्णा ने की थी, जो सूर्य वंश के राजा थे और त्रेता युग में अयोध्या पर शासन करते थे। स्कंदपुराण में वर्णन है कि स्वयं महादेव शिव पाताल भुवनेश्वर में विराजमान रहते हैं और अन्य देवी देवता उनकी स्तुति करने यहां आते हैं। यह भी वर्णन है कि राजा ऋतुपर्ण जब एक जंगली हिरण का पीछा करते हुए इस गुफा में प्रविष्ट हुए तो उन्होंने इस गुफा के भीतर महादेव शिव सहित ३३ कोटि देवताओं के साक्षात दर्शन किये थे। द्वापर युग में पाण्डवों ने यहां चौपड़ खेला और कलयुग में जगदगुरु आदि शंकराचार्य का ८२२ ई के आसपास इस गुफा से साक्षात्कार हुआ तो उन्होंने यहां तांबे का एक शिवलिंग स्थापित किया। इस गुफा की सबसे खास बात तो यह है कि यहां एक शिवलिंग है जो लगातार बढ़ रहा है। वर्तमान में शिवलिंग की ऊंचाई 1.50 फ़ीट है और शिवलिंग को छूने की लंबाई तीन फ़ीट है यहां शिवलिंग को लेकर यह मान्यता है कि जब यह शिवलिंग गुफा की छत को छू लेगा, तब दुनिया खत्म हो जाएगी। संकरे रास्ते से होते हुए इस गुफा में प्रवेश किया जा सकता है।
13. यमकेश्वर महादेव मंदिर (Yamkeshwar Mahadev, Yamkeshwar, Pauri Garhwal)
उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल जिला और ब्लॉक यमकेश्वर जहा पर भगवान शिव को समर्पित है यमकेश्वर महादेव का मंदिर, यमकेश्वर गाँव में सतेड़ी नदी के किनारे पर चारों और ऊँची पहाड़ियों से घिरा हुआ है। ऋषिकेश और कोटद्वार के कांडी-लक्ष्मण झूला मार्ग के मध्य अमोला नमक स्थान के ठीक निचे है यमकेश्वर नमक स्थान जहाँ पर स्थित है भगवान् शिव का पौराणिक और अत्यंत प्राचीन मंदिर, यही पर ब्लॉक मुख्यालय भी है, कोटद्वार से मंदिर की दूरी लगभग 90 किमी है, जबकि लक्ष्मण झूला से लगभग 60 किमी है। विभिन्न पुराणों में वर्णित मार्कण्डेय की अकाल मृत्यु श्राप को टालने हेतु मृतुन्जय जाप किया था, परन्तु जाप के समय ही यमराज मार्कण्डेय के प्राण हरने पहुंच गए, यमराज पर क्रोधित होकर शिव ने यमराज के केश पकड़ लिए थे इसी कारण इस स्थान का नाम यमकेश्वर पड़ा क्षमा याचना हेतु शिव के कहने पर यमराज द्वारा यहाँ पर भगवान का शिवलिंग स्थापित किया गया था।
14. टपकेश्वर महादेव मंदिर, देहरादून (Tapkeshwar Mahadev Temple, Dehradun)
उत्तराखंड के देहरादून शहर 6 किमी दुरी पर कैंट क्षेत्र मैं नदी के किनारे स्थित है भगवान महादेव को समर्पित टपकेश्वर महादेव मंदिर। यह मंदिर देहरादून के प्रमुख दर्शनीय स्थलों में से एक है। मंदिर की चट्टानों से लगातार बूंदें शिवलिंग के ऊपर टपकती रहती है, कहते है सतयुग मैं यहाँ से दूध की बूंदें टपकती थी जोकि कलयुग मैं जल मैं परिवर्तित हो गयी, इसलिए इसे टपकेश्वर महादेव नाम से जाना जाता है, कहते है भी गुरु द्रोणाचार्य जी इसी स्थान पर तपस्या किया करते थे और भगवान शिव उन्हें इसी स्थान पर धनुर्विद्या का ज्ञान देते थे, इसी स्थान को द्रोणपुत्र अश्वथामा की जन्मस्थली के तौर पर भी जाना जाता है, मंदिर के हजारों लाखों नहीं करोडो साल पुराना माना जाता है, जिसका वर्णन स्कंदपुराण केदारखंड मैं भी देखने को मिलता है, चारों और घने जंगलों के बीच नदी के किनारे बसा यहाँ पावन धाम पहुंचने के लिए आपको १ किमी पैदल जाना पड़ता है।
बहुत अच्छा प्रयास, चितई ग्वेल देवता बिनसर महादेव जैसे अनेक मंदिर भी शामिल करें।
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