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Pithoragarh, Uttarakhand (जिला : पिथौरागढ़, उत्तराखंड)

Pithoragarh, Uttarakhand

(जिला : पिथौरागढ़, उत्तराखंड)

जनसंख्या - ४१,१५७ (२००१ के अनुसार)
क्षेत्रफल - ७०९० वर्ग कि0 मी0 कि.मी²
• ऊँचाई (AMSL) - १६४५ मीटर

भारत के उत्तराखंड राज्य का सबसे पूर्वी हिमालयी जिला है। यह प्राकृतिक रूप से उच्च हिमालयी पहाड़ों, बर्फ से ढकी चोटियों, दर्रों, घाटियों, अल्पाइन घास के मैदानों, जंगलों, झरनों, बारहमासी नदियों, ग्लेशियरों और झरनों से घिरा हुआ है। क्षेत्र की वनस्पतियों और जीवों में समृद्ध पारिस्थितिक विविधता है। चंद साम्राज्य के उत्कर्ष काल में पिथौरागढ़ में कई मंदिर और किलों का निर्माण हुआ था ।पिथौरागढ़ जिले की संपूर्ण उत्तरी और पूर्वी सीमाएं अंतरराष्ट्रीय हैं, यह भारत के उत्तर सीमा पर एक राजनीतिक रूप से संवेदनशील जिला है। तिब्बत से सटे अंतिम जिला होने के कारण, लिपुलख, कुंगिबििंगरी, लंपिया धुरा, लॉई धूरा, बेल्चा और केओ के पास तिब्बत के लिए खुले रूप में काफी महत्वपूर्ण सामरिक महत्व है।
Pithoragarh

नगर के निकट स्थित एक गाँव में मछलियों एवं घोंघों के जीवाश्म पाये गये हैं जिससे इंगित होता है कि पिथौरागढ़ का क्षेत्र हिमालय के निर्माण से पहले एक विशाल झील रहा होगा।

हाल-फिलहाल तक पिथौरागढ़ में खस वंश का शासन रहा है, जिन्हें यहाँ के किले या कोटों के निर्माण का श्रेय जाता है। पिथौरागढ़ के इर्द-गिर्द चार किले हैं जिनका नाम भाटकोट, डूंगरकोट, उदयकोट तथा ऊँचाकोट है। खस वंश के बाद यहाँ कचूडी वंश (पाल-मल्लासारी वंश) का शासन हुआ तथा इस वंश का राजा अशोक मल्ला, बलबन का समकालीन था। इसी अवधि में राजा पिथौरा द्वारा पिथौरागढ़ स्थापित किया गया तथा इसी के नाम पर पिथौरागढ़ नाम भी पड़ा। इस वंश के तीन राजाओं ने पिथौरागढ़ से ही शासन किया तथा निकट के गाँव खङकोट में उनके द्वारा निर्मित ईंटों के किले को वर्ष १९६० में पिथौरागढ़ के तत्कालीन जिलाधीश ने ध्वस्त कर दिया। वर्ष १६२२ के बाद से पिथौरागढ़ पर चन्द राजवंश का आधिपत्य रहा।

पिथौरागढ़ के इतिहास का एक अन्य विवादास्पद वर्णन है। एटकिंसन के अनुसार, चंद वंश के एक सामंत पीरू गोसाई ने पिथौरागढ़ की स्थापना की। ऐसा लगता है कि चंद वंश के राजा भारती चंद के शासनकाल (वर्ष १४३७ से १४५०) में उसके पुत्र रत्न चंद ने नेपाल के राजा दोती को परास्त कर सौर घाटी पर कब्जा कर लिया एवं वर्ष १४४९ में इसे कुमाऊं या कुर्मांचल में मिला लिया। उसी के शासनकाल में पीरू (या पृथ्वी गोसांई) ने पिथौरागढ़ नाम से यहाँ एक किला बनाया। किले के नाम पर ही बाद में इस नगर का नाम पिथौरागढ़ हुआ।

चंदों ने अधिकांश कुमाऊं पर अपना अधिकार विस्तृत कर लिया जहाँ उन्होंने वर्ष १७९० तक शासन किया। उन्होंने कई कबीलों को परास्त किया तथा पड़ोसी राजाओं से युद्ध भी किया ताकि उनकी स्थिति सुदृढ़ हो जाय। वर्ष १७९० में, गोरखियाली कहे जाने वाले गोरखों ने कुमाऊं पर कब्जा जमाकर चंद वंश का शासन समाप्त कर दिया। वर्ष १८१५ में गोरखा शासकों के शोषण का अंत हो गया जब ईस्ट इंडिया कंपनी ने उन्हें परास्त कर कुमाऊं पर अपना आधिपत्य कायम कर लिया। एटकिंसन के अनुसार, वर्ष १८८१ में पिथौरागढ़ की कुल जनसंख्या ५५२ थी। अंग्रेजों के समय में यहाँ एक सैनिक छावनी, एक चर्च तथा एक मिशन स्कूल था। इस क्षेत्र में क्रिश्चियन मिशनरी बहुत सक्रिय थे।

वर्ष १९६० तक अंग्रेजों की प्रधानता सहित पिथौरागढ़ अल्मोड़ा जिले की एक तहसील थी जिसके बाद यह एक जिला बना। वर्ष १९९७ में पिथौरागढ़ के कुछ भागों को काटकर एक नया जिला चंपावत बनाया गया तथा इसकी सीमा को पुनर्निर्धारित कर दिया गया। वर्ष २००० में पिथौरागढ़ नये राज्य उत्तराखण्ड का एक भाग बन गया।


पर्यटन

पिथौरागढ़ नगर में पर्यटकों के रहने-खाने के लिए पर्याप्त व्यवस्था है। यहाँ कुमाऊं मंडल विकास निगम का ४४ शैयाओं का एक पर्यटक आवासगृह है। सा. नि. विभाग, वन विभाग और जिला परिषद का विश्रामगृह है। इसके अलावा यहाँ आनन्द होटल, धामी होटल, सम्राट होटल, होटल ज्योति, ज्येतिर्मयी होटल, लक्ष्मी होटल, जीत होटल, कार्की होटल, अलंकार होटल, राजा होटल, त्रिशुल होटल ,डसीला होटल आदि कुछ ऐसे होटल हैं जहाँ सैलानियों के लिए हर प्रकार की सुविधाऐं प्रदान करवाई जाती है।

पर्यटकों के लिए 'कुमाऊँ मंडल विकास निगम' की ओर से व्यवस्था की जाती है। शरद् काल में यहाँ एक 'शरद कालीन उत्सव' मनाया जाता है। इस उत्सव मेले में पिथौरागढ़ की सांस्कृतिक झाँकी दिखाई जाती है। सुन्दर-सुन्दर नृत्यों का आयोजन किया जाता है।

पिथौरागढ़ में स्थानीय उद्योग की वस्तुओं का विक्रय भी होता है। राजकीय सीमान्त उद्योग के द्वारा कई वस्तुओं का निर्माण होता है। यहाँ के जूते, ऊन के वस्र और किंरगाल से बनी हुई वस्तुओं की अच्छी मांग है। सैलानी यहाँ से इन वस्तुओं को खरीदकर ले जाते हैं।

पिथौरागढ़ में सिनेमा हॉल के अलावा स्टेडियम औरनेहरु युवा केन्द्र भी है। मनोरंजन के कई साधन हैं। पिकनिक स्थल हैं। यहाँ पर्यटक जाकर प्रकृति का आनन्द लेते हैं।

पिथौरागढ़ में हनुमानगढ़ी का विशेष महत्व है। यह नगर से २ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यहाँ नित्यप्रति भक्तों की भीड़ लगी रहती है। एक किलोमीटर की दूरी पर उल्का देवी का प्रसिद्ध मन्दिर है। लगभग एक किलोमीटर पर राधा-कृष्ण मन्दिर भी दर्शनार्थियों का मुख्य आकर्षण है। इसी तरह एक किलो मीटर पर रई गुफा और एक ही किलोमीटर की दूरी पर भाटकोट का महत्वपूर्ण स्थान है।

पिथौरागढ़ सीमान्त जनपद है। इसलिए यहाँ के कुछ क्षेत्रों में जाने हेतु परमिट की आवश्यकता होती है। पिथौरागढ़ के जिलाधिकारी से परमिट प्राप्त कर लेने के बाद ही सीमान्त क्षेत्रों में प्रवेश किया जा सकता है। पर्यटक परमिट प्राप्त कर ही निषेध क्षेत्रों में प्रवेश कर सकते हैं। चम्पावत तहसील के सभी क्षेत्रों में और पिथौरागढ़ के समीप वाले महत्वपूर्ण स्थलों में परमिट की आवश्यकता नहीं होती।

हिलजात्रा महोत्सव

कुमाऊँ, पिथौरागढ़ जनपद में कुछ उत्सव समारोह पूर्वक मनाये जाते हैं, हिलजात्रा उनमें से एक है। जनपद पिथौरागढ़ में गौरा-महेश्वर पर्व के आठ दिन बाद प्रतिवर्ष हिलजात्रा का आयोजन होता है। यह उत्सव भादो (भाद्रपद) माह में मनाया जाता है। मुखौटा नृत्य-नाटिका के रूप में मनाये जाने वाले इस महोत्सव का कुख्य पात्र लखिया भूत, महादेव शिव का सबसे प्रिय गण, वीरभद्र माना जाता है। लखिया भूत के आर्शीवाद को मंगल और खुशहाली का प्रतीक माना जाता है।

हिलजातरा उत्सव जो कि पूरी तरह कृषि से सम्बन्धित माना गया है, की शुरुआत नेपाल से हुई थी। किंवदंती है कि नेपाल के राजा ने चार महर भाईयों की वीरता से खुश होकर यह जातरा (जो नेपाल में इन्द्र जात्रा के रूप में मनाई जाती है) भेंट स्वरुप कुमाऊं के चार महर भईयौं, कुंवर सिंह महर, चैहज सिंह महर, चंचल सिंह महर और जाख सिंह महर को प्रदान की थी। इस जात्रा के साथ-साथ इस महोत्सव में काम आने वाले बिभिन्न मुखौटे तथा हल इत्यादि वस्तुएं भी प्रदान की थीं। जिसे लेकर ये चारों महर भाई कुमाऊं में स्थित पिथौरागढ़ लौट आये और सर्वप्रथम कुमौड़ गाँव में ‘हलजातरा’ के नाम से उत्सव मनाया. तब से लेकर आज तक यह प्रतिवर्ष भादो मास में गौरा महोत्सव पर्व के आठ दिन बाद मनाई जाती है। कालान्तर में इसे हिलजातरा नाम से सम्बोधित किया जाने लगा। इस उत्सव का आरम्भ और समापन बड़े हर्ष और उल्लास के साथ किया जाता है। कुमौड़ के अतिरिक्त भी जिले के कई अन्य गांवों, यथा- अस्कोट और देवलथल में भी इस पर्व को मनाया जाता है किन्तु लखिया भूत के पात्र का प्रदर्शन केवल कुमौड़ गाँव और देवलथल के उड़ई गांव में ही किया जाता है। सुबह से ही हिलजातरा में स्वांग भरने वाले अपने लकड़ी के मुखौटों को सजाने – चमकाने में लगे रहते हैं। दोपहर में कुमौड़ गांव में डेढ़ सौ साल पुराने झूले के पास दुकानें सजनी शुरू हो जाती हैं। सर्वप्रथम गाँव के सामने मुखिया आदि लाल झंडों को लेकर गाजे-बाजे व नगाडों के साथ कोट (ग्यारहवीं शताब्दी में बना स्थान जहाँ पर महर थोकदारों ने अपना आवास बनाया था) के चक्कर लगते हैं। फिर घुड़सवार का स्वांग भर कर एक व्यक्ति काठ, घास-फूस के घोड़े में आता है और अपने करतब दिखता है फिर स्वांग दिखने का सिलसिला शुरू हो जाता है।

हुक्का-चिलम पीते हुए मछुआरे, शानदार बैलों की जोड़ियां, छोटा बल्द (कुमाउनी भाषा में बैल को बल्द कहा जाता है) , बड़ा बल्द, अड़ियल बैल (जो हल में जोतने पर लेट जाता है), हिरन चीतल, ढोल नगाडे, हुडका, मजीरा, खड़ताल व घंटी की संगीत लहरी के साथ नृत्य करती नृत्यांगानाएं, कमर में खुकुरी और हाथ में दंड लिए रंग-बिरंगे वेश में पुरुष, धान की रोपाई का स्वांग करते महिलायें ये सब मिल कर एक बहुत ही आकर्षक दृश्य प्रस्तुत करते हैं जिसे लोग मंत्रमुग्ध हो निहारते हैं।

अचानक ही गावं से तेज नगाडों की आवाज आने लगती है। यह संकेत है हिलजात्रा के प्रमुख पात्र ‘लखिया भूत’(वीरभद्र) के आने का। सभी पात्र इधर-उधर पंक्तियों में बैठ जाते हैं और मैदान खाली कर दिया जाता है। तब हाथों में काला चंवर लिए काली पोशाक में, गले में रुद्राक्ष तथा कमर में रस्सी बांधे लखिया भूत बना पात्र वहां आता है। सभी लोग लखिया भूत की पूजा अर्चना करते हैं और घर-परिवार, गाँव की खुशहाली के लिए आशीर्वाद मांगते हैं। लखिया भूत सब को आशीर्वाद देकर वापस चला जाता है। फिर प्रत्येक पात्र धीरे-धीरे वापस जाते हैं। भले ही आज का वर्तमान दौर संचार क्रांति का दौर बन चुका हो, किन्तु यहाँ के लोगों में अपनी सांस्कृतिक विरासत को बचाने की भरपूर ललक दिखी देती है। कम से कम गाँव में मनाये जाने वाले इन उत्सवों से तो यही प्रतीत होता है। इससे लोगों के बीच अटूट धार्मिक विश्वास तो पैदा होता ही है साथ ही लोक कलाओं का दूसरी पीढियों में आदान-प्रदान भी होता है।

इस पर्व का आगाज भले ही महरों की बहादूरी से हुआ हो, लेकिन अब इसे कृषि पर्व के रूप में मनाये जाने लगा है।हिलजात्रा में बैल, हिरन, चित्तल और धान रोपती महिलाएं, यहां के कृषि जीवन के साथ ही पशु प्रेम को भी दर्शाती हैं। समय के साथ आज इस पर्व की लोकप्रियता इस कदर बढ़ गई है कि हजारों की तादाद में लोग इसे देखने आते हैं। 

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