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November 21, 2016

Kafal - Fruit of Uttarakhand (उत्तराखंड का एक फल जो है काफल)

उत्तराखंड का एक फल जो है काफल

(Kafal - Fruit of Uttarakhand)

काफल पाको मैं नि चाख्यो

बेडु पाको बारामासा अर काफल पाको चैता - जानते है काफल के फायदे

गर्मी का मौसम शुरू होते है उत्तराखंड में आपको काफल बेचते हुए बहुत से ग्रामीण दिख जायेंगे। देवभूमि उत्तराखंड में उगने वाला काफल अपनी खूबियों से सहज ही लोगों को आकर्षित कर लेता है। शरीर को हमेशा जवान रखने वाला यह फल एंटी ओक्सिडेंट गुणों से भरपूर है। यह फल अपने आप उग जाता है इसे उगाने के लिए कोई परिश्रम या बागबानी नहीं की जाती। अपनी इन्ही खूबियों के कारण यह फल आम लोगों में बहुत लोकप्रिय है।
Kafal Fruit of Uttarakhand

क्यों ख़ास है उत्तराखंड में काफल? (Importance of Kafal)
गर्मियों के मौसम में काफल का महत्व बहुत अधिक बढ़ जाता है। काफल के पेड़ बड़े होते है और ये ठंडी व् छायादार स्थानों पर होते है। काफल का स्वाद खट्टा मीठा होता है और ये पेट की बहुत से समस्याओं में लाभप्रद है। साथ ही ये फल बहुत से ओषधिय गुणों से भरपूर है। काफल गर्मी से बचाता है जिस कारण गर्मी के दिनों में काफल की मांग काफी बढ़ जाती है। अपने इन्ही गुणों के कारण गर्मी के मौसम में यह फल पुरे उत्तराखंड में सबसे लोकप्रिय होता है।
Kafal Fruit of Uttarakhand


आयुर्वेद में क्यों है काफल का वर्णन (Kafal use in Ayurveda)

काफल के पेड़ की छल दातुन में भी प्रयोग होती है। इसका प्रयोग अनेक प्रकार के चिकित्सीय व औषधीय कार्यो में होता है। आयुर्वेद में इसके महत्व के कारण इसे कायफल भी कहा जाता है।
दातून बनाने से लेकर अन्य चिकित्सकीय कार्यों में इसकी छाल का उपयोग सदियों से होता रहा है। इसके अलावा, इसके तेल व चूर्ण का भी अनेक औषधियों के रूप में उपयोग किया जाता रहा है। आयुर्वेद में इसके अनेक चिकित्सकीय उपयोग बनाए गए हैं। माना जाता है कि चिडयि़ों व अन्य पशु-पक्षियों के आवागमन व बीजों के संचरण से ही इसके पौधे तैयार होते हैं और एक बड़े वृक्ष का रूप लेते हैं। आयुर्वेद में इसे कायफल के नाम से भी जाना जाता है।

काफल की एक मार्मिक कहानी (The Story of Kafal)

Kafal Fruit of Uttarakhand
कहा जाता है कि उत्तराखंड के एक गांव में एक गरीब महिला रहती थी, जिसकी एक छोटी सी बेटी थी। दोनों एक दूसरे का सहारा थे। आमदनी के लिए उस महिला के पास थोड़ी-सी जमीन के अलावा कुछ नहीं था, जिससे बमुश्किल उनका गुजारा चलता था। गर्मियों में जैसे ही काफल पक जाते, महिला बेहद खुश हो जाती थी। उसे घर चलाने के लिए एक आय का जरिया मिल जाता था। इसलिए वह जंगल से काफल तोड़कर उन्हें बाजार में बेचती, जिससे परिवार की मुश्किलें कुछ कम होतीं। एक बार महिला जंगल से एक टोकरी भरकर काफल तोड़ कर लाई। उस वक्त सुबह का समय था और उसे जानवरों के लिए चारा लेने जाना था। इसलिए उसने इसके बाद शाम को काफल बाजार में बेचने का मन बनाया और अपनी मासूम बेटी को बुलाकर कहा, मैं जंगल से चारा काट कर आ रही हूं। तब तक तू इन काफलों की पहरेदारी करना। मैं जंगल से आकर तुझे भी काफल खाने को दूंगी, पर तब तक इन्हें मत खाना। मां की बात मानकर मासूम बच्ची उन काफलों की पहरेदारी करती रही। इस दौरान कई बार उन रसीले काफलों को देख कर उसके मन में लालच आया, पर मां की बात मानकर वह खुद पर काबू कर बैठे रही। इसके बाद दोपहर में जब उसकी मां घर आई तो उसने देखा कि काफल की टोकरी का एक तिहाई भाग कम था। मां ने देखा कि पास में ही उसकी बेटी सो रही है।

सुबह से ही काम पर लगी मां को ये देखकर बेहद गुस्सा आ गया। उसे लगा कि मना करने के बावजूद उसकी बेटी ने काफल खा लिए हैं। इससे गुस्से में उसने घास का गटर एक ओर फेंका और सोती हुई बेटी की पीठ पर मुटी से जोरदार प्रहार किया। नींद में होने के कारण छोटी बच्ची अचेत अवस्था में थी और मां का प्रहार उस पर इतना तेज लगा कि वह बेसुध हो गई। बेटी की हालत बिगड़ते देख मां ने उसे खूब हिलाया, लेकिन तब तक उसकी मौत हो चुकी थी। मां अपनी औलाद की इस तरह मौत पर वहीं बैठकर रोती रही। उधर, शाम होते-होते काफल की टोकरी फिर से पूरी भर गई। जब महिला की नजर टोकरी पर पड़ी तो उसे समझ में आया कि दिन की चटक धूप और गर्मी के कारण काफल मुरझा जाते हैं और शाम को ठंडी हवा लगते ही वह फिर ताजे हो गए। अब मां को अपनी गलती पर बेहद पछतावा हुआ और वह भी उसी पल सदमे से गुजर गई।

कहा जाता है कि उस दिन के बाद से एक चिडिया चैत के महीने में काफल पाको मैं नि चाख्यो कहती है, जिसका अर्थ है कि काफल पक गए, मैंने नहीं चखे…। फिर एक दूसरी चिडिया पुर्रे पुतई पुर्रे पुर गाते हुए उड़ती है। इसका अर्थ है पूरे हैं बेटी, पूरे हैं…।

ये कहानी जितनी मार्मिक है, उतनी ही उत्तरखंड में काफल की अहमियत को भी बयान करती है। आज भी गर्मी के मौसम में कई परिवार इसे जंगल से तोड़कर बेचने के बाद अपनी रोजी-रोटी की व्यवस्था करते हैं। काफल के महत्व पर एक लोकगीत भी है जिसमें वह खुद को देवताओं के खाने योग्य समझता है। कुमाऊंनी भाषा के एक लोक गीत में तो काफल अपना दर्द बयान करते हुए कहते हैं, खाणा लायक इंद्र का, हम छियां भूलोक आई पणां। इसका अर्थ है कि हम स्वर्ग लोक में इंद्र देवता के खाने योग्य थे और अब भू लोक में आ गए।

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