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August 6, 2016

मां भुवनेश्वरी सिद्धपीठ, सांगुड़ा, बिलखेत सतपुली, पौड़ी गढ़वाल, उत्तराखंड

मां भुवनेश्वरी सिद्धपीठ, 

सांगुड़ा, बिलखेत सतपुली, पौड़ी गढ़वाल, उत्तराखंड


Sanguda Devi Temple,Bilkhet,Satpuli

Sanguda Devi Temple,Bilkhet,Satpuli

Sanguda Devi Temple,Bilkhet,Satpuli

Sanguda Devi Temple,Bilkhet,Satpuli

पौड़ी गढ़वाल के बिलखेत, सांगुड़ा स्थित मां भुवनेश्वरी सिद्धपीठ पहुंचने के लिये राष्ट्रीय राजमार्ग ११९ पर कोटद्वार-पौड़ी के मध्य कोटद्वार से लगभग ५४ कि०मी० तथा पौड़ी से ५२ कि०मी० की दूरी पर स्थित एक छोटे से कस्बे सतपुली तक पहुंचना पड़ता है। सतपुली से बांघाट, ब्यासचट्‍टी, देवप्रयाग मार्ग पर लगभग ८ किलोमीटर की दूरी पर प्राकृतिक सुन्दरता तथा भव्यता से परिपूर्ण सांगुड़ा नामक स्थान पर यह मां भुवनेश्वरी सिद्धपीठ स्थित है। लोकश्रुतियों के अनुसार पूर्व समय में जब विदेशी आक्रमणकारियों ने पूजास्थलों को अपवित्र और खण्डित किया तो पांच देवियों ने वीर भैरव के साथ केदारखण्ड (गढ़वाल) की तरफ प्रस्थान किया। मां आदिशक्ति भुवनेश्वरी, मां ज्वालपा, मां बाल सुन्दरी, मां बालकुंवारी और मां राजराजेश्वरी अपनी यात्रा के दौरान नजीबाबाद पहुंची। नजीबाबाद उस समय बड़ी मण्डी हुआ करती थी। सम्पूर्ण गढ़वाल क्षेत्र के लोग उस समय अपनी आवश्यक्ता के सामान के लिये नजीबाबाद आया करते थे। पौड़ी जनपद के मनियारस्यूं पट्‌टी, ग्राम सैनार के नेगी बन्धु भी नजीबाबाद सामान लेने आये हुये थे। थकावट के कारण मां भुवनेश्वरी मातृलिंग के रूप में एक नमक की बोरी में प्रविष्ट हो गईं। अपना-अपना सामान लेकर नेगी बन्धु वापसी में कोटद्वार - दुगड्‌डा होते हुये ग्राम सांगुड़ा पहुंचे। सांगुड़ा में श्री भवान सिंह नेगी जी ने देखा कि उनकी नमक की बोरी में एक पिण्डी है जिसको उन्होने पत्थर समझकर फेंक दिया। रात्रि को मां भुवनेश्वरी ने श्री नेगी को स्वप्न में दर्शन दिये और आदेश दिया कि मां के मातृलिंग को सांगुड़ा में स्थापित किया जाय। नैथाना ग्राम के श्री नेत्रमणि नैथानी को भी मां ने यही आदेश दिया। तत्पश्चात विधि-विधान पूर्वक मन्त्रोच्चार सहित मां की पिण्डी की स्थापना सांगुड़ा में की गई। मन्दिर की भूमि के बारे में कुछ मतभेद है कुछ लोगों का कहना है कि मन्दिर की भूमि नैथाना गांव की ही थी, जबकि कुछ लोगों का मानना है कि यह भूमि रावत जाति के लोगों की है।
एक आम कथा के अनुसार देवी सती के 108 अवतार हुए। जब 107 अवतार हो गये और 108वें अवतार का समय आया तो नारद ने सती को शिव के गले में पड़ी मुण्डमाला के विषय में शिव से जिज्ञासापूर्ण प्रश्न करने के लिए कहा। देवी सती के पूछने पर शिवजी ने कहा- इसमें कोई शंका नहीं है ये सब तुम्हारे ही मुण्ड हैं। यह सुनकर सती बड़ी हैरान हुईं। उन्होंने फिर शिव से पूछा- क्या मेरे ही शरीर विलीन होते हैं? आपका शरीर विलीन नहीं होता? आपका शरीर नष्ट क्यों नहीं होता? शिव ने उत्तर दिया देवी! क्योंकि मैं अमर कथा जानता हूं अत: मेरा शरीर पञ्चतत्व को प्राप्त नहीं होता। सती बोली- भगवान! इतना समय व्यतीत होने पर अब तक वह कथा आपने मुझे क्यों नहीं बताई? शिवजी ने कहा- इस मुण्डमाला में 107 मुण्ड हैं। अब एक मुण्ड की आवश्यकता है इसके बाद ये 108 हो जायेंगे। तब यह माला पूर्ण हो जायेगी अगर सुनना चाहती हो तो मैं तुम्हें कथा सुनाता हूं किन्तु बीच-बीच में तुम्हें हुंकारे भी देने होंगे। कथा प्रारंभ हुई बीच-बीच में हुंकारे भी आते रहे। कुछ समय बाद सती को गहरी नींद आ गई। वहां कथा स्थान के पास वट वृक्ष की शाखा पर बने घोसले में तोते का साररहित एक अण्डा था, कथा के प्रभाव से वह सारयुक्त हो गया। उसमें से शुक शिशु उत्पन्न हुआ और युवा हो गया। सती को नींद में देख व कथा रस में आए व्यवधान को जानकर शुक शावक ने सती दाक्षायणी के स्थान पर हुंकारे देने शुरू कर दिए। कथा पूर्ण हुई और शुक शावक अमरत्व प्राप्त कर गया। जब सती जागी तो शिव से आगे की कथा के लिए प्रार्थना करने लगी। शिव ने कहा- देवी क्या तुमने कथा नहीं सुनी। देवी ने कहा- मैंने तो नहीं सुनी। शिव ने पूछा तो बीच में हुंकारे कौन भरता रहा? यहां तो इधर-उधर कोई दिखाई नहीं दे रहा है। इस बीच शुक शावक ने वट वृक्ष से उतर कर हुंकारे देने की बात स्वयं स्वीकार की। यही शुक शावक व्यासपुत्र "शुकदेव" हुए। व्यास जी का निवास स्थान यहां से लगभग 10 मील की दूरी पर है जिसे व्यास घाट कहते हैं, यहां पर गंगा और नारद गंगा का संगम है। सती ने अपना शरीर त्याग दिया और नगाधिराज हिमालय की पत्नी मैना के गर्भ में जन्म ले लिया। सती का मुण्ड शिव की मुण्डमाला में संलग्न हो गया। इस प्रकार 108 मुण्डों की माला पूर्ण हो गई एवं देवी के 108 अवतार हुए।
खूबसूरत घाटी में अवस्थित सांगुड़ा में श्री भुवनेश्वरी सिद्धपीठ का अवलोकन करने पर एक ओर नयार और दूसरी ओर हरे भरे खेत, लहलहाती फसलें, सामने के दृश्य में पहाड़ियां इस धार्मिक स्थल को अनुपम सौन्दर्य प्रदान करती हैं। गर्भगृह को छोड़कर मन्दिर का जीर्णोद्धार वर्ष १९८१ तथा १९९३ में हो चुका है। इस मन्दिर के पुजारी ग्राम सैली के सेलवाल जाति के लोग हैं। मन्दिर का प्रबन्ध एवं व्यवस्था नैथानी जाति के लोग देखते हैं। श्री भुवनेश्वरी ग्राम नैथाना, धारी, कुण्ड, बिलखेत, दैसंण, सैली, सैनार, गोरली आदि गांवों का प्रमुख मन्दिर है। इस मन्दिर में मकर संक्रांति के अवसर पर लगने वाला गेंद का मेला (गिन्दी कौथीग) बहुत प्रसिद्ध है। इस सिद्धपीठ के उचित प्रबन्धन के लिये वर्ष १९९१ में एक समिति की स्थापना की गई थी। जिसके तत्वाधान में जीर्णोद्धार के अतिरिक्त इस क्षेत्र के सौन्दर्यीकरण के लिये अन्य योजनायें चलाई जा रही हैं। वैसे तो श्रद्धालुओं हेतु मन्दिर वर्ष भर खुला रहता है, परन्तु अगस्त से मार्च तक इस स्थान के मनोरम वातावरण तथा अनुपम सौन्दर्य के अवलोकन हेतु सर्वोत्तम समय है। मन्दिर परिसर में श्रद्धालुओं के ठहरने हेतु एक धर्मशाला है परन्तु भोजन तथा जलपान की व्यवस्था स्वयं करनी होती है। मन्दिर से ८ किलोमीटर दूर सतपुली बाजार में होटल, रेस्टोरेन्ट्‌स में ठहरने एवं जलपान आदि की सुविधा आसानी से मिल जाती है।

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