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September 19, 2016

केदारनाथ के आसपास 3 साल बाद भी लाशें इंतजार कर रही हैं

केदारनाथ 

के आसपास 3 साल बाद भी लाशें इंतजार कर रही हैं


Himalay Ka Kabristan

‘मुझे लगता है यार कि अच्छा पत्रकार बनने से भी ज्यादा जरूरी है अच्छा इंसान बनना.’

ये बात एक आदमी ने कही थी. चमकीली पनियाई आंखों में बूढ़े हिरन सा नेह भरकर. जिसने जंगल के सब रंग देख लिए हों. उनका नाम लक्ष्मी प्रसाद पंत है. पत्रकार हैं. राडिया वाले नहीं. मीडिया वाले. उस नस्ल के, जिस पर आज भी आम आदमी यकीन करता है. कि सब कुछ बिकाऊ नहीं. कि कुछ लोग हैं, जो अभी भी एड़ी गड़ाकर मोर्चा लिए हैं, सत्ता प्रतिष्ठान की गड़बड़ियों के खिलाफ.
बहरहाल उनकी कही जो दूसरी बात याद रही उसे पढ़ें.

‘पहाड़ों को बचाने की चिंता सबसे ज्यादा मैदानों को करनी चाहिए.’

मगर ऐसा हो नहीं रहा. मैदान एक किस्म की खतरनाक मीठी नींद में मुब्तिला है. 15-16 जून 2013 की रात भी उन्हें जगा नहीं पाई. तब भारी बारिश हुई थी. भूस्खलन हुआ था. केदारनाद घाटी में तबाही मची थी.

अगली सुबह जब दैनिक भास्कर के राजस्थान एडिटर पंत को यह खबर मिली तो वह फ्लैशबैक में चले गए. साल 2004. उन दिनों वह दैनिक जागरण के लिए रिपोर्टिंग करते थे. एक वैज्ञानिक अनुसंधान दल के साथ केदारनाथ घाटी गए थे. वहां उन्हें बताया गया. हिमालय बूढ़ा हो रहा है. झुर्रियों से लबरेज. ये ढहने की कगार पर है. कोई कुछ नहीं कर रहा. और किसी दिन इस घाटी में सैलाब आ सकता है. जिस रफ्तार से ग्लेशियर पिघल रहे हैं, जिस ढंग से यहां तब्दीलियां हो रही हैं. सब एक बम पर बैठे हैं. गुमसुम. पंत ने इस पर लंबी रिपोर्ताज लिखीं. पर हुआ कुछ नहीं. इस देश में अकसर कुछ नहीं होता.

मगर केदारनाथ घाटी के हादसे के बाद एक पत्रकार ने नए सिरे से कमर कसी. सरकार से भी पहले वहां पहुंचे. नए सिरे से तथ्य और तर्क जमा किए. और उसका नतीजा है एक किताब. हिमालय का कब्रिस्तान. हम आपके लिए उसका एक अंश लेकर आए हैं. इसे वाणी प्रकाशन ने छापा है. इस किताब को जरूर पढ़ा जाना चाहिए. ताकि एक डर आपके भीतर भी पनप जाए. जिसे साझी और लगातार कोशिशों के उजास से ही दूर भगाया जा सकता है.

अंश से पहले लक्ष्मी पंत की बात भी सुनिए.
“जयपुर में था, जब केदारनाथ हादसे का पता चला. फौरन निकल पड़ा. वजह पर्सनल थी. 2004 में दस्तावेजी सबूतों के साथ लीड स्टोरी की थी. तबाही की आमद की भविष्यवाणी की थी. हर पत्रकार चाहता है कि उसकी ब्रेक की खबर सच हो. मगर ये सच मैं तो क्या कोई भी नहीं चाहेगा. लेकिन अब ये सच्चाई थी. मैंने इस तबाही को तैयार होते देखा था. अब ये हो गई थी. और आगे भी बहुत कुछ होना है. तो जाना जरूरी थी. वहां पहुंचा तो ऐसे ऐसे सच पता चले कि घिन आने लगी.

अब यही देखिए न. 16 जून को मौसम विभाग के तत्कालीन डायरेक्टर आनंद शर्मा ने उत्तराखंड सरकार को चेतावनी भेज दी थी. भारी बारिश होने वाली है. भूस्खलन की आशंका है. केदारनाथ यात्रा रोक दो. मगर लापरवाही की हद देखिए. मौसम विभाग को सरकारी लहजे में धमकी दी गई. जबरन पैनिक मत क्रिएट करिए.
और ये तो बस शुरुआत थी. 16 की रात हादसा हुआ. 19 जून को रेस्क्यू शुरू हुआ. तब तक तत्कालीन मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा दिल्ली में थे. गांधी परिवार के बर्थडे जश्न में हाजिरी बजाने के लिए. सूबे ने नहीं दिल्ली दरबार ने सत्ता सौंपी थी उन्हें.

और केदारनाथ. वहां जब पानी बढ़ा, तब 31 हजार लोग मौजूद थे. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक उनमें से 10 हजार लोग लापता हैं. 3 साल बाद भी. कहां होंगे, सबको पता है. आज भी ऊंचे इलाकों में लाशें मिल रही हैं. एक मां की लाश का कंकाल, जिसकी छाती से बेटा चिपका हुआ है. उसकी तस्वीर देख आंख बरफ हो जाएगी.

मगर सत्ता की आंख में पानी नहीं होता. इतना समय बीत गया. एक भी आदमी जिम्मेदार नहीं ठहराया गया. सजा नहीं हुई. सुधार की कौन कहे. सोचिए क्या हाल होगा. जब डिजास्टर मैनेजमेंट की सूबाई टीम वहां पहुंची तो उनके पास सिर्फ रस्सी और टॉर्च थी.

एक और बात ध्यान आ रही है. रेस्क्यू ऑपरेशन के तीन महीने बाद पुलिस को खबर मिली. ऊंचाई पर कुछ लाशें पड़ी हैं. डीआईजी जीएस मरतोलिया ने नए सिरे से सर्च ऑपरेशन चलाया. परिवार के परिवार. जो पानी से बचने के लिए 19 हजार फीट तक की ऊंचाई पर चले गए थे. शुरुआती तलाश सिर्फ मंदिर के आसपास हुई. और ये लोग ठंड में भूख से मर गए. लाशों के हिस्से बचे थे. साथ में थीं घड़ियां. जो चल रही थीं. सांसें तो कब की रुक चुकी थीं. जो ऊंचाइयों से लौटे, वे भी बहुत कुछ गंवा के. कई लोगों ने अपने मां-बाप, भाई-बहन, पत्नी, बच्चों को वहीं पत्थरों के नीचे दबाया. और तब सूखे आंसू और कांपती टांगें लिए नीचे उतरे.

वो हिमालय जो हमको न दिखता है, न दिखाया जाता है. मैंने उसकी कहानी कहने की कोशिश की है. हर तर्क को वजन देने के लिए तथ्य हैं. जांच रिपोर्ट हैं. ईमेल्स हैं. सर्वे हैं. सबको जानना चाहिए. सरकारी रवैये के चलते दि ग्रेट हिमालय बूढ़ा और बदहाल हो रहा है. इसे खूबसूरती और आस्था के चश्मे से देखना काफी नहीं.
हिमालय जिन इलाकों में पसरा है, वहां से कुल 52 सांसद आते हैं. पर उनकी आवाज नहीं सुनाई देती. पांचवे योजना आयोग से बात चल रही है. कि हिमालयन डिवेलपमेंट अथॉरिटी बने. हिमालय के लिए एकमुश्त पॉलिसी. उसकी देखरेख के लिए. कश्मीर से नॉर्थईस्ट तक. पर अब तक कुछ नहीं हुआ.

और याद रखिए. केदारनाथ घाटी हादसे में मरे कई लोगों की लाशें आज भी पहाड़ों पर हैं. बर्फ में. जंगलों में. वे जिंदा नहीं हो सकते. पर उनके लिए ही सही. हम हिमालय को मरने से तो बचा सकते हैं. ताकि फिर कोई लाश यूं बरसों इंतजार न करे. “

आहट, जो हो चुकी थी

2004, केदारनाथ री कैप

देहरादून में वह 16 जुलाई, 2004 का खूबसूरत दिन था. सूरज घर के बरामदे में अच्छा लगने लगा था. काले और नमी से भरे बादल लम्बी और सूखी गर्मी के खत्म होने का इशारा कर रहे थे. आप कह सकते हैं कि मानसून हिमालय में पहुँच गया है और अब पहाड़ की खूबसूरत तस्वीर एक स्वप्न की मानिन्द हमारे सामने आने वाली है. यह वही रूमानियत है जिसके लिए देहरादून मशहूर है. यानी इस घाटी में पहाड़ की कठिनाई और ऊँचाई तो नहीं है लेकिन उसकी आब-ओ-हवा बदस्तूर महसूस कर सकते हैं. दूसरे लफ़्ज़ों में, शहर का शहर और पहाड़ का पहाड़.किसी से सुना है कि जि़न्दगी लकीरों और तकदीरों का खेल है. मेरे कलम की लकीरें, पहाड़ की पथरीली पगडंडियों से यूँ ही नहीं जुड़ जातीं. पहाड़ और इससे मेरा कभी न खत्म होने वाला आकर्षण कोई इत्तेफाक नहीं है. बस यूँ कहिए कि एक-एक वाकया और बात चुन-चुनकर लिखी और रखी गयी है. चाहे वो देहरादून में रहते हुए एन्वायर्नमेंट और वेदर रिपोर्टिंग करना हो या इसी ज़िम्मेदारी के रहते केदारनाथ त्रासदी की ‘भविष्यवाणी’ इसके घटने से दस साल पहले कर देना हो.

हुआ यूँ कि मैं उन दिनों दैनिक जागरण के देहरादून संस्करण में विशेष संवाददाता हुआ करता था. हिमालय और उसके ग्लेशियर मेरी जि़न्दगी का हिस्सा तो थे ही, अब रिपोर्टिंग का हिस्सा भी थे. इसी कारण जब भी मेरे सर्किल में किसी को पहाड़ से जुड़ी किसी हलचल की जानकारी मिलती, खबर मुझतक पहुँच जाती. मेरा काम होता उसकी जड़ तक पहुँचना और सच सामने लाना. इसी सिलसिले में जब मुझे पता चला कि केदारनाथ के ठीक ऊपर स्थित चौराबाड़ी ग्लेशियर पर ग्लेशियोलॉजिस्ट की एक टीम रिपोर्ट तैयार कर रही है तो मेरी भी बेचैनी बढ़ गयी. मैं देहरादून से ऊखीमठ और फिर गौरीकुंड होते हुए केदारनाथ जा पहुँचा. क्योंकि रात हो गयी थी, इसलिए 7 जुलाई को मैं बिड़ला धर्मशाला में ही रुक गया. केदारनाथ से चौराबाड़ी ग्लेशियर की दूरी 4 किलोमीटर है. 8 जुलाई, 2004 को जब मैं उस ग्लेशियर लेक के पास पहुँचा तो वहाँ मेरी मुलाकात वाडिया इंस्टीट्यूट के ग्लेशियोलॉजिस्ट डॉ. डी. पी. डोभाल से (अब वे यहाँ एचओडी हैं) हुई.

डॉ. डोभाल उस वक़्त वहाँ झील की निगरानी के लिए अपने यंत्र इन्स्टॉल कर रहे थे. झील का जलस्तर 4 मीटर के आसपास रहा होगा. मैंने पूछा—जलस्तर नापने और ग्लेशियर के अध्ययन के मायने क्या हैं? डोभाल कुछ हिचकते हुए बोले— मन्दिर के ठीक ऊपर होने के कारण चौराबाड़ी झील के स्तर से केदारनाथ सीधे जुड़ा है. यदि जलस्तर खतरे से ऊपर जाता है तो कभी भी केदारनाथ मन्दिर और आसपास के इलाके में तबाही आ सकती है. मेरी जिज्ञासा उनके जवाब से और बढ़ गयी. मैंने पूछा कि क्या इतना पुराना मन्दिर भी इस झील के सैलाब में बह सकता है? उनका जवाब था, हाँ. यह सम्भव है, लेकिन अभी तक झील का स्तर खतरनाक होने के प्रमाण नहीं मिले हैं. यदि यह 11 से 12 मीटर तक पहुँचता है ज़रूर खतरा होगा. उन्होंने बात सँभालते हुए कहा—एवलांच तो इस इलाके के लिए आम हैं. ये कितने खतरनाक हो सकते हैं, किसी से छुपा नहीं है. यदि झील का स्तर बढ़ा तो एवलांच के साथ मिलकर यह किसी बम से भी ज्य़ादा खतरनाक असर वाला होगा. यूँ समझिए कि बम के साथ बारूद का ढेर रखा है. बम फटा तो बारूद उसका असर कई गुना बढ़ा देगा. मेरे माथे पर शिकन आ गयी. खबर का कुछ मसौदा मिलता दिखाई दिया. अब मेरा सवाल था, इतना खतरा? फिर तो काफ़ी दिन से निगरानी चल रही होगी? मेरे सीधे सवालों से लगातार परेशान हो रहे डोभाल ने झल्लाते हुए कहा—हाँ, 2003 से. इसके बाद उन्होंने मेरे बाकी सवाल अनसुने कर दिये. हकीकत यह है कि मेरा उनसे सम्पर्क इससे आगे नहीं बढ़ पाया. अब केदारनाथ के ठीक ऊपर पल रहे एक खतरे ने मुझे चौकन्ना कर दिया. फिर एक खबरनवीस के तौर पर खबर ब्रेक करने की बेचैनी कैसी रही होगी, आप समझ सकते हैं. जानकारी बेहद अहम थी. सवाल सिर्फ हिन्दू आस्था के एक बड़े तीर्थ केदारनाथ से ही नहीं, कई लोगों की जि़न्दगी से भी सीधे जुड़ा था.

तीन दिन मैं यहाँ रुका. चौराबाड़ी ग्लेशियर झील की कुछ तस्वीरें लेकर मैं देहरादून के पटेल नगर स्थित अपने दफ्तर लौट आया. केदारनाथ के खतरे और चौराबाड़ी ग्लेशियर की नाजुक स्थिति पर खबर लिखकर मैंने पहला ड्राफ्ट तत्कालीन स्थानीय सम्पादक अशोक पांडे को सौंपा. इसे पढ़कर वे भी चौंक गये. बोले, भरोसा नहीं होता. ग्लेशियर, झील और एवलांच कैसे केदारनाथ जैसे ऐतिहासिक मन्दिर के लिए खतरा हो सकते हैं? मैंने इतना ही कहा, विशेषज्ञ ग्लेशियर झीलों पर जाकर 2003 से ग्राउंड स्टडी कर रहे हैं. डाटा इकट्ठा किया जा रहा है. टीम बनी है. इतना सब कुछ किसी आधार पर ही कर रहे होंगे. मैं खुद उन्हें ये सब करते हुए देखकर आया हूँ. जवाब में भी सवाल ही मिला—लेकिन कोई कुछ बता क्यों नहीं रहा? मामला इतना संवेदशील है तो प्रशासन को तो कोई जानकारी होगी? क्या सीएम या किसी मन्त्री से कुछ पूछा? सबके वर्जन हैं या नहीं? संस्थान का पक्ष भी चाहिए . एक-एक ज़िम्मेदार से बात करो. मैं चुप था. मैंने समझाने की कोशिश की—सर. अगर बात इतनी आगे पहुँच गयी तो खबर सबको मिल जायेगी. फिर मेरे वहाँ रातोंरात जाने का क्या फ़ायदा ? अब मैंने अपनी पत्रकारीय ज़िम्मेदारी का हवाला देते हुए खबर छापने पर ज़ोर दिया. वजह थी—कुछ दस्तावेज़ और डोभाल से बातचीत. आपदा मन्त्री का वर्जन मैं पहले ही ले चुका था. फिर भी लम्बे तर्क-वितर्क हुए. खबर में कुछ काट-छाँट भी. इसके बाद खबर छपने के लिए तैयार हुई. मामला चूँकि बड़ा था इसलिए पांडे जी ने कानपुर स्थित दैनिक जागरण के हैड ऑफिस में फ़ोन कर जानकारी दे दी. अन्त में, 1 अगस्त, 2004 के दिन फ़ैसला हुआ कि खबर वाकई बड़ी है और फ्रंट पेज की मुख्य खबर बने. यानी खबर लिखने के लगभग 20 दिन बाद.

खबर छपने के बाद चौराबाड़ी झील तो खैर नहीं फटी, लेकिन मेरे ऑफिस में पूछताछ का एवलांच-सा आ गया. वाडिया इंस्टीट्यूट के कार्यवाहक डायरेक्टर और भू-वैज्ञानिक ए.के. नन्दा (डायरेक्टर प्रो. बी.आर. अरोड़ा उस वक़्त छुट्टी पर थे) ने गुस्से और कड़वाहट भरे लहजे में मुझे फ़ोन किया. बौखलाहट में बोले—यह क्या छाप दिया है. आपको कुछ ग़लतफ़हमी है. हमारा कोई वैज्ञानिक चौराबाड़ी लेक पर गया ही नहीं है और न ही हम ऐसी कोई रिपोर्ट तैयार कर रहे हैं. एकबारगी तो मैं भी हैरान रह गया. मैंने कहा यह खबर दफ्तर में बैठकर नहीं लिखी गयी है. झील पर होकर आया हूँ. वही लिखा है जो मुझे आपके ही एक वैज्ञानिक डी.पी. डोभाल ने बताया है. न तो उन्होंने मेरी दलील सुनी और न य़कीन किया. और तो और उन्होंने खबर के गलत और बेबुनियाद होने का एक लम्बा-चौड़ा नोटिस भी इंस्टीट्यूट की ओर से भेज दिया.

मुझ पर खंडन छापने के लिए दबाव डाला गया. इंस्टीट्यूट में मेरे आने पर पाबन्दी लगा दी गयी. पत्रकार जानते हैं कि जब किसी रिपोर्टर की खबर फ्रंट पेज की लीड खबर बनी हो और उसे गलत करार दे दिया जाये तो उस पर कितना दबाव रहता है. साथी पत्रकार भी टेढ़े-मेढ़े कयास लगाने लगते हैं. मेरे पास पर्याप्त सबूत और रिकॉर्डिंग्स होने के कारण खंडन तो नहीं छपा, लेकिन इस खबर ने मुझ पर सन्देह का एवलांच ज़रूर छोड़ दिया. ज़ाहिर है, इंस्टीट्यूट ने सवाल-जवाब डोभाल से भी किये. मैंने भी बाद में उनसे मिलकर अपनी खबर पर बात करनी चाही कि आखिऱ इसमें गलत क्या था? जवाब तो नहीं मिला, लेकिन उन्होंने मुझसे दूरी ज़रूर बना ली. अक्टूबर 2004 में मैंने दैनिक जागरण देहरादून छोड़ दिया. खबर भी भुला दी गयी. खुद पर उठे सवालों का जवाब देने की बेचैनी मन में ही बनी रही. मैं उत्तराखंड से राजस्थान, फिर कश्मीर और फिर से राजस्थान आ गया. बेहतर से और बेहतर होने की यह यात्रा चलती रही. ज़िन्दगी सिखाती रही, मैं सीखता रहा.

समय के साथ बहुत कुछ बदला. बेहिसाब चुनौतियाँ भी आयीं लेकिन कुछ चीज़ों की पहचान कभी खत्म नहीं हुई. देहरादून छोडऩे के नौ साल बाद 15-16 जून, 2013 की अलस्सुबह चौराबाड़ी का सच केदारनाथ की तबाही के तौर पर पहाड़ से नीचे उतरा. कुछ ऐसे कि इसने मुझे हिला दिया और दुनिया को भी. मेरी खबर के सच का खुलासा इस तरह होगा, मैंने कभी नहीं सोचा था. मैं दुखी था. चाँद की तरह गोल चौराबाड़ी झील तबाही की हद यूँ लाँघेगी, मैंने भी कभी नहीं सोचा था. पीड़ा और उत्तेजना दोनों मुझ पर हावी होने लगे. आज मैं उस दिन को कोस रहा था जब इस खबर के सही होने की जि़द पकड़े था. तब मैं चाहता था कि यह खबर सही हो, आज मुझे अपनी उस चाहत पर अफ़सोस और क्षोभ था.

दुनिया छोटी है और गोल भी. 2004 में छोड़ी अपनी बीट पर जून 2013 में फिर तैनात था. देहरादून जाकर डोभाल से मिला. मेरे जाने के बाद उनके साथ इस खबर के बारे में क्या-क्या हुआ मैं नहीं जानता. लेकिन तबाही के बाद ए.के. नन्दा ने डोभाल को फिर फ़ोन किया और कहा-डोभाल तुम भी उस वक़्त सही थे और पन्त की वह खबर भी सही थी. ये स्वीकारोक्ति महज औपचारिक थी. खबर पर तो प्रकृति की निर्मम मुहर पहले ही लग चुकी थी.

एक और खबर की तलाश में, मैं चौराबाड़ी ग्लेशियर फिर गया. जिस नीली झील को नौ साल पहले मैंने लबालब देखा था आज जैसे यहाँ किसी ने ट्रैक्टर चलाकर उसे सपाट कर दिया हो. झील नहीं यहाँ उसके अवशेष ही शेष थे. केदारनाथ तबाही का ये एपिकसेंटर आज उजाड़ और वीरान पड़ा था. टूटी-फूटी चौराबाड़ी झील तबाही की निर्भीक गवाही दे रही थी.

और क्या लिखा जाये. 1 अगस्त, 2004 को लिखी मेरी खबर 2013 में फिर सबके सामने आयी. नौ साल बाद, गढ़वाल से सांसद सतपाल महाराज ने लोकसभा में खबर लहराकर सरकार से जवाब माँगा. सांसद तरुण विजय ने भी मुझसे खबर की एक-एक डिटेल माँगी. सुना है कोई कमेटी भी बनायी गयी है. खेद के साथ कह रहा हूँ 2004 की खबर अपना असर नहीं दिखा पायी, लेकिन 2013 में सरकारों को खबर का महत्त्व पता चला.

नन्दा कुछ साल पहले रिटायर हो चुके हैं. डोभाल अब वाडिया में विभागाध्यक्ष हैं और किसी और ग्लेशियर पर काम कर रहे हैं. ग्लेशियर की कोई और गुत्थी सुलझा रहे हैं. लेकिन खबरों के भीड़ के बीच हम सब को यह सच बेचैन करता है कि चौराबाड़ी झील को पालने-पोसने की भारी कीमत केदारनाथ हादसे के रूप में पूरे देश ने चुकाई है. यह हमारे सरकारी विभाग संस्थानों के कामकाज और ढर्रे पर भी एक गम्भीर सवाल है.

आप कह सकते हैं कि यह कहानी तो पुरानी है. जवाब है—कितनी? बस अगली तबाही जितनी ही न? इस बार भी जगह, तारीख, लोग अलग होंगे. बाकी सब वही. इसीलिए याद कराना ज़रूरी है. क्योंकि गलतियाँ याद दिलाना भी सीखने का ही एक तरीका है.
और हाँ, मैं यकीनी तौर पर कह सकता हूँ कि आपदा के तीन अक्षर, आशा के दो अक्षरों पर भारी रहे हैं.

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